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पञ्चविंशतितमोऽधिकारः ।
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दयाधर्मप्रणेतारं सर्वसत्त्वहितङ्करम् । दयालु भगवन्तं तं वर्द्धमानं नमाम्यहम् ||१|| शुक्तध्यानमले नात्र कृतं कर्मविदारणम् । परात्मपदनारूढं वन्देऽहं परमेश्वरम् ||२|| धर्मध्यानबलेनात्र स्वात्मशुद्धिं विधाय च । भावभुत धरो धीरः पूर्वज्ञः पूर्णपुण्यवान् ||३|| शान्तः परमवैराग्यमावितात्मा जिनेन्द्रियः । शुक्लध्यानं स वै ध्यातु पात्रं हि शुद्धबोधभाक् ||४|| ध्यानं शुचिगुणाच्छुल्कं कषायपङ्कसंज्ञयात् । शुद्ध तेजोमयं शुभ्र निष्प्रकम्पं च निष्क्रियम् ॥५३॥ अज्ञातीतं मनोतीतं संकल्पादिविवर्जितम् : स्वात्मयोगसमुद्गृद्धं स्वात्मनिष्ठं स्वभावजम् ||६|| मोहाविदोषनिर्मुक्तं
जो दयाधर्मका निरूपण करनेवाले हैं, समस्त जीवोंका हित करनेवाले हैं और दयालु हैं, ऐसे भगवान् वर्द्धमान स्वामीको मैं नमस्कार करता हूँ || १|| जिन्होंने शुलध्यानके बलसे समस्त कर्मों का नाश कर दिया है और जो परमात्म पदपर विराजमान हैं; ऐसे परमेश्वर सिद्ध परमेष्ठीको मैं नमस्कार करता हूँ ||२ || जो पुरुष भावश्रुतको धारण करनेवाला है, धीर-वीर है, अंग और पूर्वोका जानकार है, पूर्ण पुण्यवान् है, शांत हैं, जिसके आत्मा परम वैराग्य की भावना जागृत है, जो जितेन्द्रिय है और शुद्ध ज्ञानको धारण करनेवाला है। ऐमा भव्य जीव धर्मध्यानके बलसे अपने आत्माको शुद्धकर शुक्लध्यानके ध्यान करनेका पात्र होता है ॥३-४॥ जो ध्यान अत्यन्त निर्मल गुणोंके कारण शुक्लध्यान कहलाता है, जो कषायरूप कीचड़ के नाश होनेसे अत्यन्त शुद्ध है, तेजोमय है, निर्मल है, निष्प्रकंप है. निष्क्रिय है, इंद्रियोंसे रहित है, मनसे रहित है, संकल्पविकल्पोंसे रहित है, जो केवल आत्मा के निमित्तसे अत्यन्त गूढ़ है, स्वात्मनिष्ठ है, स्वाभाविक है, मोहादिक दोषोंसे रहित है, कषायरूपी मलसे रहित है और शुद्ध स्फटिकके समान निर्मल है; ऐसे ध्यानको शुक्लध्यान
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