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मोहमार्गोत्र क्षमा शान्तिः क्षमा सुखम् ||५६ || संसारे नाट्यरूपेऽस्मिशानायोनिसमाकुले। नृपो भूत्वा च विष्ठायां कृमि: स्यात्तत्व मानता ||२७|| दर्शनं स्वात्मलैजुष्षं धर्मः स्याथ तिरोहितः । अविनयो हि पूज्यानां मानेन सुबने ध्रुवम् ॥ १५८ ॥ मानिनो त्रिमुखाः सर्वे भवन्ति मित्रबांधवाः । मानिनं गुणयुक्त वा सन्मानयति कोपिन ४६॥ गुणागारे गुरौ पूज्ये व स्वमानवः । स दीनतामवाप्नोति भवगर्ते पुनः पुनः || ६ || धर्मस्थितस्य मानेन याज्ञां करोति यः । स्वधर्मस्यैव सोऽवशां हा करोति हि मूढधीः ||६१ || प्राणकण्ठगतेनापि मानेन त्वं कदापि वा । धार्मिकाणामवज्ञां हि मा कार्षीः धर्मप्रातिकाम् ||६२ || धार्मिकारणां च यो मानी हीनं मत्वा करोति वा । श्रवज्ञामपमानं स धर्म वेत्ति न स्वतः || ६३ || जैनधर्मानभिज्ञोऽसौ वाऽविवेकेन वंचितः । संमज्जति भवान्धौ स चिरं पापी कुकर्मणा ॥ ६४ ॥
ही धर्म है, क्षमा ही धर्म है, क्षमा ही चारित्र हैं, क्षमा ही तप है, क्षमा ही मोक्षमार्ग है, क्षमा ही शांति है और सुख है ||५६ | | अनेक योनियोंसे भरे हुए इस नाटकशाला रूप संसारमें यह जीत्र राजा होता है और फिर विष्ठामें जाकर कीड़ा होता है । फिर भला इस जीवका अभिमान कैसे रह सकता है १ ||५७|| इस संसार में मान करने से सम्यग्दर्शन मलिन हो जाता है, धर्म छिप जाता है और पूज्य पुरुषोंका अविनय होता है ||५८|| अभिमानी पुरुषसे मित्र बांधव आदि सब लोग विमुख हो जाते हैं, यदि अभिमानी गुणी हो तो भी उसका कोई संमान नहीं करता || ५९ || अभिमानी पुरुष गुणोंके निधि अपने पूज्य गुरुकी मी अवज्ञा करता है। तथा इस संसाररूपी गढ़में चार बार नीचताको प्राप्त होता है ||६०|| जो अभिमानी पुरुष अपने अभिमान के कारण किसी धर्मात्माकी अवज्ञा करता है, दुःख है कि वह मूर्ख अपने धर्मकी ही निन्दा करता है || ६१|| इसलिये है आत्मन् ! तू कंठगत प्राथ होनेपर भी धर्मात्मा पुरुषों की अवज्ञा कभी मत कर । क्योंकि धर्मात्माओंकी निंदा करना धर्मको घात करनेवाला है || ६२|| जो अभिमानी पुरुष धर्मात्माओं को हीन समझकर उनकी अवज्ञा वा अपमान करता है, वह वास्तव में धर्मको नहीं समझता || ६३॥ | वह पापी पुरुष या तो जैनधर्मसे अनभिज्ञ है, या अविवेक पूर्ण है। अभिमानी पुरुष अपने कुकर्मोंके द्वारा इस संसार रूपी समुद्र में अवश्य चता है || ६४ || इस अभिमानसे पितासे द्वेष करता है, अभिमानसे धर्मकी निंदा करता
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