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मु. १०
॥१०४॥
क्षमैव धन्या सा योगिर्ना ध्यानवेदिनाम । यया प्रशाम्यते शीघ्र क्रोधाग्निः धर्मदाइकः ॥४७॥ क्रोधिनो हि मुनेभक्ति धर्म-झोपि करोति न । समणेर्दन्दशकस्य प्रतीति कोपि याति न ||४|| कंधश्चेतिक सुयोगेन ध्यानेन, किं प्रयोजनम् । उपवासेन किं साध्यं वा दीक्षा ग्रहणेन किम् ॥४1 क्रोधिनो न विचारोस्ति हिताहितप्रदर्शकः । यस्मरक्रोधी नरस्तीन शीघ्र पापं करोति हि ॥५॥ कोधिनी न विजानन्ति देवं स्वगुरुमागमम् । क्रोधी किं न हि मालयं करोति नान्प्रति स्वयम ।।५१॥ ब्रूते किन्न नरः क्रोधी निन्दितं कटुकं वचः । गुरूणामपि निर्लजः क्रोधः किं करोति न ॥॥ वधबन्धादयः सर्वे सहसा यान्ति दुगुणाः । क्रोधाकिन्न प्रजायेत ताडन मारणादिकम् ॥५३।। धर्मस्थितस्य कोपोह क्रोधेन यदि निन्दनम् । करोति घोरपापं सः बुद्धिहीनोऽविचारका ॥५४॥ तस्मात्कोधः सदा त्याज्यो भव्येन धर्मदिना । क्रोधाद्भवेच्च संसारः क्षमया लभ्यते शिवम् ।।५३|| क्षमा दानं क्षमा धर्मः क्षमा वृत्तं क्षमा तपः। क्षमा है सैकड़ों परिपहरूपी योद्धाओंसे कभी विकारको प्राप्त नहीं होता है ॥४६॥ ध्यानको जाननेवाले योगियोंकी | एक क्षमा ही धन्य है, जिससे कि धर्मको जला देने वाली कोधरूपी अग्नि शी ही शांत हो जाती है ।.४७॥ धर्मात्मा पुरुष मी क्रोधी भुनिकी भक्ति कभी नहीं करता है, सो ठीक ही है, क्योंकि यदि सर्प मणिमाहित हो तो मी मला उसका कौन विश्वास करता है ? ॥४८॥ यदि लोध है तो फिर योग धारण करनेसे वा ध्यान करनेसे क्या प्रयोजन है ? अथवा उपवास करने और दीक्षा ग्रहण करने से ही क्या प्रयोजन है ? ॥४९॥ क्रोध करनेवालेको हित अहित दिखलानेवाला कोई विचार नहीं रहता, क्योंकि कोधी मनुष्य बड़ी शीघतासे तीव पाप किया करता है ।॥५०॥ क्रोधी मनुष्य देव, शास्त्र और गुरुको भी नहीं मानता और उनके साथ सदा ईया | किया करता है ॥५१।। कोधी मनुष्य गुरुओंके लिये भी निर्लज्ज होकर निन्दनीय और कड़वे वचन कहा करता है, सो ठीक ही है; क्रोधी मनुष्य क्या क्या नहीं करता है ? ॥५२॥ इस क्रोधसे बध बंधन, ताडन-माग्न आदि सब दुर्गुण बहुत शीघ्र उत्पन्न हो जाते हैं सो भी ठीक ही है क्रोधसे क्या क्या नहीं होता है ? ॥५३॥ जो पुरुष क्रोध करके धर्मात्मा पुरुषोंकी निंदा करता है, वह बुद्धिहीन है, विचार रहित है और सदा घोर | पाप करता रहता है ॥५४॥ इसलिये धर्मको जाननेवाले भव्य जीवोंको क्रोधका सदाके लिये त्याग कर देना चाहिये । क्योंकि क्रोधसे संसार होता है और क्षमासे मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥५५॥ इस संसारमें क्षमा
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