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स०प्र०
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मातृपित्रादयस्तेऽपि विश्वसन्ति कदापि न मा मायाविना न वा क्वापि ध्यान वृत्तं च भावतः । जनानां वंचनायैवं धृतं वेषं हि मायया ॥४॥ तावदेव हि साम्राज्यं नायिनां हि घरातले । यावन्न प्रकटीभूता माया तेषां हि देवतः ॥६॥ मायाशल्यं धुनोत्येव सम्यग्दर्शनमुत्तमम्। मोक्षमार्ग निहत्येव चार्गलेव निकेतनम् ।।६।। मायाविनामिव चित्तं काठिन्य लभते परम् । यत्र धमाकुरो नैव प्ररोइति कदापि वा ।। तस्मान्मायां परित्यज्य भज चार्जवमुत्तमम् । येन दर्शनशुद्धि स्याद्भावशुद्धिश्च जायते ॥८॥निःशल्यं च करोत्येवावं हृदयमन्दिरम् । शुद्धिस्तेनैव वृत्तानां स्यात्कर्मासवरोधिका ।।।
आजेवेन हि शोभन्ते वपोजपत्रतादयः । अतिक्रराणि पापानि नश्यन्ति चार्जवेन वा ॥१०॥ श्रार्जवेन शिवप्राप्तिः आर्जवेन मतपः शोरगर श्यामार्जन सुख मिजमा
सर्वेषामेव पापानां लोभोऽस्ति नु पितामहः । लोभेनन वीरेण पापानि विजितानि च ॥२॥ लोभानलेन
उसका विश्वास नहीं करते ।।८।। मायाचारी पुरुषोंको भावपूर्वक न तो ध्यान हो सकता है और न चारित्र
धारण हो सकता है । ऐसे लोग सब लोगोंको ठगनेके लिये ही मायापूर्वक मेष धारण करते हैं ॥८४। इस | पृथ्वीमण्डलपर मायाचारियोका साम्राज्य तभी तक रह सकता है, जबतक कि दैवयोगसे उनकी मायाचारिता
प्रगट नहीं हो जाती ८५॥ यह मायाशल्य उत्तम सम्यग्दर्शनको नष्ट कर देता है और घरको बेड़के समान | मोक्षमार्गको बंद कर देता है ॥८६॥ मायाचारियोंका हृदय अत्यन्त कठिन हो जाता है और इसीलिये फिर । उसमें धर्मरूपी अंकुर कमी उत्पन्न नहीं होने पाता ||८७। इसलिये हे आत्मन ! तू इस मायाचारिताको छोड़कर | उत्तम आर्जव धर्म धारण कर, जिससे कि तेरा सम्पन्दर्शन शुद्ध हो जाय और तेरे भाव शुद्ध हो जावें ॥८८||
यह आर्जवधर्म हृदयरूपी मंदिरको शल्यरहित कर देता है और इसी आर्जवधर्मसे कर्मों के आस्रवको रोकनेवाली | चारित्रकी शुद्धि होती है।८९॥ तप, जप और व्रतादिक सब आर्जवधर्मसे ही शोभायमान होते हैं और इसी संसारका
आर्जवधर्मसे क्रूरसे क्रूर पाप नष्ट हो जाते हैं ।।९०॥ इन आर्जव धर्मसे मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसी आर्जव धर्मसे भवका नाश होता है, इसी आर्जवधर्मसे उत्कृष्ट ध्यान होता है और इसी आर्जवधर्मसे आत्माका सुख प्राप्त होता है ।।९१॥ | यह लोभ समस्त पापोंका बाया है । इस लोमरूप एक योद्धासे ही सब पाप हार गये है ६॥९२॥ जो लोमरूपी अग्निसे जल गया है, उसे विपयादिकोंमें भी जला हुआ समझो। ऐसा पुरुष सैकड़ों