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सु० प्र०
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का भवाब्धिा मनीयते ! झोयन्ते येन कर्माणि मार्दव तत्समाश्रय |1७५॥
निकृतिः सर्वभूतानां निंया चारित्रधातिका ! दीपिका सर्वपानानां धर्मरत्नविलुठिका ॥७६।। मायासमः न शल्योस्ति परस्परविभेदकः । येन पिता स्वपुत्रं हि हन्ति निकृतिवञ्चितः ॥७७|| निकृत्या जायतेऽकीर्तिविश्वासोऽपि पलायते । धर्मोऽपि नश्यते शीनं परत्र दुर्गतिर्भवेत् ।।! मायया छायमानं हि पापं ते भवति स्फुटम् । आत्मन्नास्त्यत्र सदेहो। मायिभ्योऽलमले पुनः | निराकरोति या शीनं ज्ञानिनि प्रत्ययं नरे। बकवेष समादाय हा हा बंचयते परान् ।। निर्माल्यकूटकस्येव वृत्तिर्मायाविनाशाहो । गृहात्येप हि निस्सारं कमिय किल्विषम || लोकद्वयहिते युक्तां दीक्षां धृत्वा जिनेशिनाम् । मायया वंचितास्त नु सन्ति चारित्रघातकाः ॥२॥ मायाविनां न विश्वास धर्मज्ञोऽपि करोति हि ।
| तप शीघ्र ही सिद्ध हो जाते हैं।७४॥ जिम मादेवधर्मसे मोक्षकी प्राप्ति होती है, जिस मार्दवधर्मसे यह मनुष्य संसाररूपी समुद्रसे पार हो जाता है और जिस मार्दवधर्मसे समस्त कर्म नष्ट हो जाते हैं, ऐसे मादेवधर्मको धारण कर ॥७५:
समस्त जीवोंको ठगनेवाली माया अत्यन्त निध है, चारित्रको नाश करनेवाली है, समस्त पापोंको प्रकाशित करने के लिये दीपकके ममान है और धर्मरत्नको चुरानेवाली है ॥७६॥ इस संसारमें मायाके समान परस्पर विरोध उत्पन्न करनेवाला अन्य कोई शल्य नहीं है । इस मायासे ठगा हुआ पिता अपने पुत्रको भी मार डालता है |७७|| इस ठगीके कारण अपकीर्ति होती है, विश्वास नष्ट हो जाता है, धर्म | नष्ट हो जाता है और परलोकमें दुर्गति होती है ।।७८॥ हे आत्मन् ! यद्यपि तू अपने पापोंको मायासे ढकना || चाहता है, तथापि वे पाप बिना किसी संदेहके प्रगट हो जाते हैं । इसलिये इस मायाको त कमी मत कर |
॥७९॥ यह माया ज्ञानी मनुष्य में भी विश्वास हटा देती है। दुःख है कि मायाचारी मनुष्य बगलाके मेषको धारणकर दूसरोंको ठगता है ॥८॥ आश्चर्य है कि मायाचारी पुरुषोंकी वृत्ति निमाल्य कटके समान निःसार और पापरूप पदार्थों को ग्रहण करनेवाली होती है ॥८१॥ जो दोनों लोकोंका हित चाहते हुए और जनेश्वरी दीक्षा धारण करते हुए भी मायाचारी करते हैं, उनको अवश्य ही चारित्रको पात करनेवाला समझना चाहिये ||८२|| धर्मात्मा पुरुष भी मायाचारियोंका कभी विश्वास नहीं करते और माता पिता आदि भी कमी