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दग्धी यः स दग्धो विषयादिषु । नोपायशतकैः सोऽपि न कापि शान्तिमश्नुते ॥६३|| कषाये दुर्धरी लोभः परेऽकिचित्करा मताः । यदि लोभी जितः शौचादन्ये सर्वे जिताः स्वयम् ॥४|| लोभात्पुत्रं पिता हन्ति नारी हन्ति । पतीश्वरम् । भ्राता सहोदरं हन्ति शिष्यो हंति गुरु तथा ॥३७॥ लोभाच कलहो नित्यं जायते हि दिन दिनम् । लोभान्मित्रमरित्वं हि जायते च स्वभावतः ।६। लोमाश्च प्रविशत्यग्नौ लोभान्मनति सागरे । लोभाच दुर्गतिं याति पापं कृत्वा पुनः पुनः १९७) पुत्रमित्रकलत्राण गृहद्रव्यादिसम्पदाम् । येन मोहो जितस्तेन कर्माणि विजितानि च 181 | सुस्थक्तसर्वसंगस्य साधोर्दैगम्थरस्य च । अत्यन्तं निस्पृहस्यापि लोभश्चद्दीक्षया पलम् III देहादपि विरक्तानां जातरूप, सुधारिणाम् । अपि लोभो धनादीनां पुनः पके द्विपातनम् ॥१०॥परमं निस्पृहा शान्तानिरीहा गतवाच्छकाः । त्यक्ताशाः स्वात्मलीनास्त यतीशा युक्तिगामिनः ॥१.१॥ तस्मालोभं परित्यज्य विषयाणामशेषतः । श्रात्मन त्वं स्वात्मलीनः स्याः
उपार्योंसे भी कहीं शांत नहीं हो सकता ।।९३॥ समस्त कषायोंमें यह लोम ही दुर्धर है । पाकी मर कपाय
अकिंचित्कर हैं। यदि शोचसे लोभको जीत लिया नो समस्त कषायोंको जीता हुआ ही समझो ॥९४|| है इस लोभके कारण पिता पुत्रको मार डालता है, स्त्री पतिदेवको मार डालती है भाई भाईको मार डालता | 1 है और शिष्य गुरुको मार डालता है ।।९५:। इस लोभके कारण प्रतिदिन सदा कलह बनी रहती है |
और इस लोभसे मित्र भी स्वभावसे ही शत्रु हो जाता है ॥९६।। लोभसे ही यह जीव अग्निमें जल जाता है, 19 लोभसे ही समुद्र में डूब जाता है और लोमसे ही बार पार पापोंको करता हुआ दुर्गतिको प्राप्त होता है। ॥९७॥ जिस पुरुषने पुत्र, मित्र, स्त्री, घर और धन आदि संपदाओंके मोहको जीत लिया है। उसने | समरत कौंको जीत लिया ऐसा समझो ॥९८॥ जिमने समस्त परिग्रहोंका त्याग कर दिया है, दिगम्बर *
अवस्था धारण कर ली है और जो परम निस्पृह है; यदि ऐसे साधुको लोम विद्यमान हो तो फिर उसको दीक्षा | | लेनेसे क्या लाम है ? ॥९९॥ जो साधु शरीरसे भी विरक्त है और दिगम्बर अवस्था धारण करते हैं; यदि वे
धनादिकका लोभ करें तो फिर उनका कीचड़में ही पड़ना समझो ॥१०॥ जो साधु परम निःस्पृह हैं, शांत हैं | | इच्छारहित हैं, आशारहित हैं और आत्मामें लीन हैं; ऐसे लाधु ही मोक्षमार्गमें गमन करनेवाले समझे जाते | जाते हैं ॥१०१।। इसलिये हे आत्मन् ! तू विषयोंके समस्त लोभोंका त्यागकर, शांत और परम निस्पृह होकर