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शान्तः परमनिस्ग्रहः ॥ १०२ ॥ सम्वाद्य शौचधमं हि कृत्वा भावं सुनिर्मलम् । धृत्वा हि स्वात्मनो ध्यानं लोभं तु सहसा जय ||१०३|| शौचान्मोक्षो भवा लोभात् शौचासुरयं परादधम् । शौवात्कर्मजयेो नित्यं लोभात्कर्मास्रवो महान् ||१०४|| पावेगेन क्रोधमानादिना तथा जीवः करोति संसारे जन्म मृत्यु पुनः पुनः ॥१०५॥ रागद्वेष कषायं च कुम्मायाकम् । शिवम यानि सुबोधतः ||१०६ ॥ इति विषयकषायं मोहभाचं विजित्य त्यजतु कटुककोपं मानमायां च लोभम् । धरतु परमशुद्धिं शुद्धभावं च कृत्वा चरतु च निजचित्ते वीतरागं सुधर्मम् ॥ २०७॥ इति सुधर्म ध्यान प्रदीपालंकारे कपायविजयप्ररूपणो नाम द्वादशोधिकारः ।
अपने आत्मामें लीन हो ॥ १०२ ॥ हे आत्मन् ! तू निर्मल भावको धारण करता हुआ शौच धर्मको धारण कर तथा अपने आत्माका ध्यानकर सरल रीतिसे लोभको जीत || १०३ ॥ शौचधर्मसे मोक्ष की प्राप्ति होती है, लोभसे संसार बढ़ता है, शौचधर्म से पुण्य बढ़ता है, लोभसे पाप बढ़ता है, शौचसे कर्मों की निर्जरा होती है और लोभसे फर्मोंका प्रवल आस्रव होता है || १०४|| इस प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कपायोंके वेगसे यह जीव इस संसार में बार बार जन्म-मरण करता रहता है || १०५ ॥ हे आत्मन् ! तू क्रोध, मान, माया और लोभरूप कपार्यो को तथा रागद्वेषको जीतकर अपने शुद्ध सम्यग्ज्ञानके द्वारा सर्वोत्कृष्ट शांतिको प्राप्त हो । १०६ ।। इम प्रकार विषय hernist तथा मोहभावको जीतकर क्रोध, मान, माया और लोभरूप चारों कड़वे कषायों का त्यागकर देना चाहिये । तथा अपने निर्मल भावको धारणकर परम शुद्धि धारण करनी चाहिये और अपने हृदयमें वीतरागखर श्रेष्ठ धर्मको पालन करना चाहिये ॥ १०७ ॥
इस प्रकार मुनिराज श्री सुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारमें कषायों के जीतने को वर्णन करनेवाला यह बारह अधिकार समाप्त हुआ ।
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