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त्रयोदशोऽधिकारः ।
रागद्वेषविजेतारं साम्यामृतनिधीश्वरम् । वासुपूज्यं जिनं वन्दे सुरैः पूज्यं महेश्वरम् ॥ १॥ रागद्वेषो महानियो संसा रस्य निबन्धनौ । सर्वासां च विपत्तीनां मतौ तौ मूलकारणे ॥१२॥ रागद्वे पौ महाक्रूरो मही च दुःखदौ मतौ । याभ्यां जोवाः अपीयरेन यंत्रे संसारचकके ॥३॥ मोहवशादयं जीत्रो रज्यति परिकुप्यति । रागद्वेषौ समासाद्य नानानर्थं करोत्यलम् । ॥४॥ रागद्वेषौ हि संसारे मोह बीजो मती जिनैः । याम्यां नमखनासाथ पान त्वं महावते ||५|| मोहनिन्द्रां गतोऽसि मात्मन् गाढतभामिमाम् । रागद्वेषविलुण्ठाभ्यां पीड्यमान श्चिरं भृशम् ||६|| जन्ममृत्युलताचक्रं रागद्वेषेन कर्मणा । स्वमूर्धनि समुद्धृत्य भवे भ्राम्यसि तत्र || पातयित्वा महामोहज्वालायां त्वां निरन्तरम् भस्मीभूतं प्रकुर्वन्ति
जो राग-द्वेषको जीतनेवाले हैं, समतारूपी अमृतके निधीश्वर हैं, जो देवोंके द्वारा पूज्य हैं और सर्वोत्कृष्ट ईश्वर हैं; ऐसे भगवान् जिनेन्द्रदेव वासुपूज्यको मैं नमस्कार करता हूँ ||१|| ये राम और द्वेष महानिय हैं, संसार के कारण हैं और समस्त विपत्तियों के मूल कारण हैं ||२|| ये राग और द्वेष महाःदुख देनेवाले क्रूर ग्रह हैं और इन्हीं के कारण ये जीव संसारचक्ररूपीमें यंत्रमें सदा पेले जाते हैं || ३ || मोहनीय कर्मके उदयसे यह जीव राग और द्वे करता है तथा राग-द्वेष के कारण यह जीव अनेक अनर्थ उत्पन्न करता रहता है || ४ || भगवान् जिनेन्द्रदेवने राग-द्वेष दोनों को संसारका मुख्य वीज बतलाया है । इन्हीं राग-द्वेषके कारण ममत्व करता हुआ यह जीव पागलसा हो जाता है ||५|| हे आत्मन् ! राग-द्वेषरूपी चोरों द्वारा चिरकालसे महादुःखी हुआ तू मोहरूपी गाढ निद्राको प्राप्त हो रहा है ॥ ६॥ हे आत्मन् ! तू रागद्वेषरूपी कार्यों के कारण जन्ममरणरूपी लताचक्र को मस्तकपर धारणकर मचके समान इस संसारमें परि
मा०
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