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मुनीनां च जितेनसाम् ॥४॥ यथा यथा कषाया हिशीयन्ते क्रियया यया । तथा तथा भवेथानमात्मरूपप्रकाशकम् ॥४॥ यदा चिन्तापरत्वेन मोहभावो विलीयते । येन येन विषारेण तवधानं वात्र कथ्यते ॥४६॥ यथा यथा यतीशेडस्मिन् वद्ध ते वीतरागता । स्वात्मनि स्थिरता पूर्व रमते चिप्समात्मनः ॥४७॥ येन येन विचारेण क्रियया वात्र कर्मणि । तदेव ध्यानमाख्यातं वीतरागजिनेशिना ॥४८॥ जिनागमे हि चैवं तद्धर्मध्यानं निरूपितम् । सुखशान्तिसुसिद्धयर्थ भव्या ध्यायन्तु निर्मलम् E|| चमत्कारकरं धर्मध्यानं ध्यायन्तु सर्वदा । भन्याः सर्षे प्रयत्नेन संसारदुःखभीरुकाः 1.0 11०11 जगति तिमिरहंता सर्वकल्याणकर्ता सकलसुखविधाता सबंदुःखग्रहता। परमविभवदाता स्वगेमोक्षप्रणेता इह जयतु सुधर्मध्यानभानुखिलोके ।।
इति सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारे धर्मध्यानग्ररूपणो नाम षोडशोधिकारः । उसीको धर्मध्यान कहते हैं ॥४४|| इस क्रियासे जैसे जैसे कषायोंका नाश होता जाता है; वैसे ही वैसे आत्माके स्वरूपको प्रकाशित करनेवाला ध्यान प्रगट होता जाता है ॥४५॥ यह जीव जिन जिन विचारोंसे जब चिन्तवनमें लीन हो जाता है और उस समय इसका जो ममत्व और मोह नष्ट हो जाता है, उसको धर्मध्यान कहते हैं ॥४६॥ इस ध्यानरूप कार्यमें इन मुनियों के हृदयमें जैसे जैसे वीतरागता बढ़ती जाती है और स्थिरतापूर्वक आत्माका चिच जैसे जैसे आत्मामें लीन होता जाता है, जिस जिस क्रियासे वा जिस जिस चिन्तवनसे | आत्मलीनता और वीतरागता बढ़ती है, पीतराग भगवान जिनेन्द्रदेव उसी को धर्मध्यान कहते हैं ।।४७-४८|| इस *
जिनागममें ऊपर लिखे अनुसार धर्मध्यानका स्वरूप कहा है, इसलिये भव्य जीवोंको सुख और शांति की सिद्धि || के लिये यह निर्मल ध्यान अवश्य धारण करना चाहिये ॥४९।। संसारके दुःखोंसे भयमीत हुए भव्य जीवोंको | अपने समस्त प्रयत्न करके चमत्कार करनेवाले इस धर्मध्यानका सदा चिन्तवन करते रहना चाहिये ॥५०॥ | यह धर्मध्यानरूपी सूर्य संसारभरमें मोहरूपी अन्धकारको दूर करनेवाला है, समस्त कल्याणोंको करनेवाला है, | समस्त सुखोंको देनेवाला है, समस्त दुःखोंको नाश करनेवाला है, परम विभूतिको देनेवाला है और स्वर्ग-मोक्षको | प्राप्त करानेवाला है। ऐसा यह सुधर्मध्यानरूपी सूर्य तीनों लोकोंमें सदा जयवंत हो । ५१॥ इस प्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारमें धर्मध्यानके लक्षणको
निरूपण करनेवाला यह सोलहवां अधिकार समाप्त हुआ। सु.२०१८
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