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प्नोति भन्योऽत्र सहजं शुभम् ||३५|| मनःपर्ययविज्ञानं समाप्नोति प्रसन्नधीः । धर्मध्यानबलेनैव केवलज्ञानसाधकम् ||३६|| | शुक्रध्यानस्य सम्पतिर्जायते वा शुभा । धर्मस्यानवलेनैव तद्धधानं परिगृह्यताम् ॥३७॥ शुद्धोपयोगभावस्य विभूति: सुखदा शुभा । धर्मध्यानबलेनैव वर्द्धते हि निरन्तरम् ||३८|| इन्द्रनागेन्द्रदेवानान दमिन्द्रपदेशिनाम् । धर्मध्यानबलेनैव विभूतिः प्राप्यतेऽनिशम् ||२६|| चक्रवर्तिपदादीन प्राप्तिः स्याद्धि सुखावहा । धर्मध्यानबलेनैव भव्यानां पुण्यसाधिका ||४८ ॥ तद्वयानं द्विविधं प्रोर्क बायाभ्यन्तरभेदतः । तुर्यात्सनमपर्यन्तं प्रो श्रीमज्जिनेश्वरैः ||४१॥ श्रभ्यन्तरं हि भव्यानां ध्यानं किल्बिषदायकम् भावशुद्धकरं चास्ति वात्मवीर्यसुबद्ध कम् ||४२|| देवपूजा गुरोः सेवा जपो धर्मोपत्तेव नम् । संयमधारणं चैत्र सर्वे वे साधका मताः ||४३|| वीतरागेण भावेन यदा किंचिद्विचिन्तनम् । धर्मध्यानं तदाख्यातं
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भव्य जीवको अवधिज्ञान प्राप्त हो जाता है और शुरूप भावश्रुत ज्ञान मी सहज रीति से प्राप्त हो जाता है। ||३५|| इस धर्मध्यानके ही बलसे प्रसन्न बुद्धिको धारण करनेवाला भव्य जीव केवलज्ञानका साधक ऐसे मन:पर्यय ज्ञानको बहुत शीघ्र प्राप्त कर लेता है || ३६ || तथा इसी धर्मध्यानके बलसे परम शुभ ऐसी केवलज्ञानकी संपत्ति प्राप्त हो जाती है । इसलिये भव्यजीवों को यह धर्मध्यान अवश्य धारण कर लेना चाहिये ॥ ३७ ॥ सुख देनेवाली और शुभरूप जो शुद्धोपयोगरूप भावकी विभूति है, वह इस धर्मध्यानके ही बलसे निरंतर बढ़ती रहती है ||३८| इस धर्मध्यानके ही से इन्द्र-नागेन्द्र आदि देवों की विभूति प्राप्त होती है और अहमिन्द्र पदके स्वामी अहमिन्द्रोंकी विभूति भी इसी धर्मध्यानसे प्राप्त होती है ॥ ३९॥ महानुष्यको सिद्ध करनेवाली और अत्यन्त सुख देनेवाली चक्रवर्ती आदि पदोंकी प्राप्ति भी मध्य जीवों को इस धर्मध्यानके ही बलसे होती है ॥४०॥ बाह्याभ्यन्तर के भेदसे उस धर्मध्यानके दो भेद हैं- तथा चौथे गुणस्थानसे लेकर सातवें गुणस्थान तक यह धर्मध्यान होता है ||४१ ॥ उसमें भी अभ्यन्तर धर्मध्यान मध्य जीवोंके समस्त पापको नाश करनेवाला है तथा भावोंको शुद्ध करनेवाला है ओर आत्माकी शक्तिको बढ़ानेवाला है ||४२ || देवपूजा करना, गुरुकी सेवा करना, जप करना, धर्मसेवन करना और संयम धारण करना आदि सब उम्र धर्मध्यानके साधक हैं ||४३|| समस्त पापोंको जीतनेवाले मुनिलोग अपने वीतराग भावोंसे जो कुछ चिन्तवन करते हैं.
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