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म.प्र.
स्मरूपं हि वस्तुतरामाराकर रवा व बाशा पाया पर्णवाभ्य चिन्तनम् । एकाग्रेन नियंत्रा वा ध्यानं तदाप कथ्यते ॥२६॥ ध्यानं चतुर्विध ज्ञेयमातरौद्रादिभेदतः । धर्म्य शुक्ले शुभे ध्याने चारौद्रशुमे मते ||२७|| आर्सरौद्र परित्यक्त्वा सम्यक्त्वेन मुमुक्षुकः । धर्मध्यानं समाराम स्वात्मानमपि साधयेत् ॥२॥ चेन ध्यानेन जीर्यन्ते कर्माणि च निरन्तरम् । सम्यक्त्वं वद्धते नित्यं शुद्धं भवति मानसम् ||२६|| येन ध्यानबलेनैव भत्रकोटिपरंपरा । शीघ्र प्रक्षीय नित्या यथा वअंग सानुमान् ॥३०॥ धर्मध्यानबलेनैव भव्याः दुःस्वपरंपराम् । प्रयासेन विना शीघ्रं नाशयन्ति न संशयः ॥३॥ कामादिकविकाराणि करायव्यसनानि च । धर्मध्यानबलेनैव शाम्यन्त्यत्र स्वभावतः ॥३२॥ वर्मध्यान. बलेनैव परा शुद्धिः प्रजायते । भज्या यां प्राप्य शीघ्र हि मोक्षमार्ग भजन्ति ते ३शा धर्मध्यानबलेनैव निर्वाखस्य समोपता । अनायासेन त शीघ्र लमन्से भव्यकाः स्वयम् ॥३४॥ धर्मध्यानबनावावधिज्ञान प्रपद्यते । भावमु समा
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| आत्मामें निश्चल हो जाना, आत्मरूप ध्यान कहलाता है; यह ध्यान भी पदार्थोके यथार्थ स्वरूपको प्रकाशित करनेबाला है ॥२३-२५।। अथवा ध्यान करनेवालेके द्वारा मन, वचन और कायसे किसी वर्णका अलंबन कर एकाग्रतापूर्वक उसका चितवन करना भी ध्यान कहलाता है ।।२६॥ वह ध्यान आत रौद्र आदिके मेदसे चार प्रकारका है । धर्मध्यान और शुक्लध्यान शुभ घ्यान हैं तथा आध्यान और रौद्रध्यान ये अशुभ ध्यान हैं ।।२७॥ मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषको आर्तध्यान तथा रौद्रध्यानका त्याग कर देना चाहिये और सम्यग्दर्शनपूर्वक धर्मध्यानको धारणकर अपने आस्माको सिद्ध कर लेना चाहिवे ॥२८॥ इस ध्यानसे ही निरंतर कर्मोंकी निर्जरा होती रहती है. सम्यग्दर्शन शुद्ध होता है और मन सदा शुद्ध बना रहता है ॥२९॥ जिसप्रकार वजसे पर्वत चूर चूर हो जाता है, उसी प्रकार इस ध्यानके बलसे सदासे चली आई जन्म-मरणरूप संपारकी करोड़ों परंपराएं बहुत शीघ नष्ट हो जाती हैं ।॥३०॥ इस धर्मध्यानके बलसे भव्य जीव बिना किसी प्रयत्नके अनेक दुःखों की परंपराको बहुत शीघ्र नष्ट कर देते हैं॥३१।। कामादिक विकार, कपाय और व्यसन आदि सब धर्मध्यानके पलसे अपने आप शांत हो जाते हैं ।।३२।। इस धर्मध्यानके ही बलसे आत्माकी उत्कृष्ट शुद्धि होती है, जिप शुद्धिको पाकर | यह आस्मा शीघ्र ही मोक्षमार्गको प्राप्त कर लेता है ॥३३॥ इस धर्मध्यानके बलसे ही मोक्षलक्ष्मी ममीप आ जाती है
और भव्य जीव उसको बिना किसी परिश्रमके शीघ्र ही प्राप्त कर लेते हैं ॥३४॥ इस धर्मध्यानके ही पलसे
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