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१०प्र०
मा०
॥१३॥
सप्तदशोऽधिकारः।
ध्यानेशं ध्यानदेष्टारं योगिनायं निरंजनम् । परात्मपदमारूढं शान्तिनाथं नमाम्यहम् ॥शा रत्नत्रयात्मको धर्मो भाषितो हि जिनेश्वर. । जरास्मादनमेत हि वयं आयह कथ्यते सा सक्षमादिकभेदेन धर्मो हि दशधा मनः। तत्तस्मादनपेतं हि धर्मध्यानं प्रचत्तते ॥शा व्यवहारसुचारित्रदीमांगो धर्म उच्यते । ततस्मादनपेत हि धर्मध्यानं मवं जिने
|| मोहक्षोभेन संत्यतो भावो यो हि निजात्मनः । सचारित्रेण शुद्धः स धर्मो धम्यं तदात्मकम् ॥५॥ धर्मध्यानस्य भेदा हि चत्वारः सन्ति चागमे । क्रमशो लक्षणं तेषां अवीमि तजिनागमात ||६|| जिनाझाविचयाभिख्यमपायविषयाभिधम् । विपाकविचयाख्यं हि संस्थानविषयास्यकम् णा सर्वेभ्यो मुख्य चास्ति तत्राज्ञाविचयाभिधम् । धर्म
जो ध्यान में ईश्वर हैं, ध्यानका उपदेश देनेवाले हैं, योगियों के स्वामी हैं, निरंजन हैं और परमात्मपदपर Ki प्राप्त है; ऐसे भगवान शांतिनाथको मैं नमस्कार करता हूँ॥१॥ भगवान जिनेन्द्रदेवने धर्मका स्वरूप रलत्रयात्मक
बतलाया है, जो रत्नत्रयरूप धर्मका ध्यान किया जाता है; उसको धर्मध्वान कहते हैं ।।२।। अथवा उत्तम क्षमादिकके भेदसे धर्मके दश भेद हैं, जो यह दशधर्मरूप थ्यान किया जाता है, उसको धर्मध्यान कहते हैं॥३।। अथरा देदी- | प्यमान व्यवहार चारित्रको धारण करना मी धर्म है, उस व्यवहार चारित्ररूप धर्मका ध्यान करना धर्मध्यान है | ॥४॥ अथवा मोह-क्षोभसे रहित और श्रेष्ठ चारित्रसे अत्यन्त शुद्ध ऐसा जो अपने आत्माका भाव है, उसको मी
धर्म कहते हैं और उसका ध्यान करना धर्मध्यान कहलाता है ॥५|| आगममें उस धर्मध्यानके चार भेद | बतलाये हैं, अब आगे आगमके अनुसार अनुक्रमसे उनके लक्षण कहते हैं ||६|| आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार धर्मध्यानके भेद कहलाते हैं ॥७॥ इन चारों ध्यानोंमें आज्ञाविचय