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सु० प्र०
लोकस्वरूपं हि ज्ञात्वा जैनागमासुधीः । ध्यायेच लोकसंस्थानं जन्ममृत्युकदर्धित्तम् ॥७॥ पुनः पुनर्निजे चित्ते चिन्तयेष विचारयेत् । एकाग्रमनसा तद्धि ध्यानं संस्थानसंज्ञकम् ॥४॥ संस्थानविचयं ध्यानं मुख्यध्यानं प्रकीर्तितम् । सर्वध्यानेषु तच्छृठं परं वैराग्यकारणम् ॥ एकेनैव हि संस्थानथ्यानन क्रमशत्रवः । पलायन्ते यतः शीघ्रं तस्माच्छतम मतम् ॥१७६।। संस्थानविचयं ध्यान पुरा ध्यातं मुनीश्वरैः । गणधरैश्च योगीशः कर्मविच्छेदहेतवे ||७|| तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भव्येन च मुमुक्षुणा । संस्थानविचयं ध्यानं ध्यातव्यमधुनापि च ॥७॥ संघनपवनवारैः सर्वतो वेष्टितोऽसौ स हि | गुरुतरलोकोऽत्रिमोऽनादिसिद्धः । जननमरणदुःखं तत्र जोवः समति यदि धनि सुधर्म कर्मनाशं करोति ||६||
इति सुधर्मध्यानप्रदीपालकारे संस्थानविचयधर्मध्याननिरूपणो नाम विशतितमोऽधिकार।
| जिनागमके अनुसार लोकका स्वरूप जानकर जन्म-मरणको दूर करनेवाला लोकसंस्थान नामका | धर्मध्यान वा संस्थानविचय नामका धर्मध्यान धारण करना चाहिये ॥७३॥ इमप्रकार एकात्र मनसे तीनों लोकोंके स्वरूपका अपने हृदयमे बार बार चितवन करना और बार बार विचार करना संस्थानविचय नामका धर्मध्यान कहलाता है ।।७४॥ यह संस्थानविषय नामका धर्मध्यान सब ध्यानों में मुख्य है और सबमें श्रेष्ठ है, तथा परम चैराग्यका कारण है ॥७५|| इस एक ही संस्थानविचय ध्यानसे समस्त कर्मरूपी शत्रु शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, इसीलिये यह ध्यान सबमें श्रेष्ठ माना जाता है ॥७६॥ यह संस्थानविचय नामका धर्मध्यान अपने अपने काँको नाश करनेके लिये पहले अनेक मुनीश्वरोंने धारण किया है, गणधरोंने धारण किया है और योगिराजोंने धारण किया है ॥७७।। इसलिये मोक्षकी इच्छा करनेवाले भव्य जीवों को अपने समस्त प्रयत्न करके आज भी इसी संस्थानविचय नामके धर्मध्यानको धारण करना चाहिये ॥७८॥ यह बहुत बड़ा लोकाकाश धनवात, अम्बुवात और वात; इन तीन प्रकारकी वायुओंसे चारों ओरसे वेष्ठित है, तथा अकृत्रिम और अनादि सिद्ध है, इसमें यह जीव जन्म-मरणके अनेक दुःखोंको सहन करता रहता है, यदि यह जीव श्रेष्ठ धर्मको धारण कर ले तो कर्मोंका नाशकर सिद्ध पद प्राप्त कर सकता है ॥७९॥ इसप्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारने संस्थानविचय नामक
धर्मभ्यानका निरूपण करनेवाला यह बीसा अधिकार समाप्त हुश्रा ।