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कुर्व शुभम्। सम्यक्त्वं बदबे धृत्वा ते भवन्त्यमरेश्वराः ॥६४|| क्षिपन्ति जिनबिम्बस्य पोपरि सुपचकम् । स्वर्ग
देवांगनामिस्ते पूज्यन्ते हि निरन्तरम् ॥६५॥ लेपयन्ति सुबिम्बस्य पाघ्रि गंधजै रसैः। ते हि स्वर्ग सुधागंधेः पज्यंत प्र०
दिविजैः सदा ॥६॥ सरागसंयमैर्भावः श्रीशासनप्रकाशनैः। प्रमावनाविशेषैश्च स्वर्गलोके प्रजायते ॥६७।। स्वर्गेऽपि In
तत्त्वतो नास्ति सौख्यं स्वात्मभवं परम् | शाश्वतं निर्विकारं हि सर्वकर्ममलातिगम् ॥६॥ परं तत्रापि चात्यन्तं महादुखं हिमानसम् । संसारवर्द्धक नूनं चिन्तासन्तापकारकम् ॥६॥ त्रिलोकेऽपि नहि क्वापि कदाचिद्विद्यते सुखम् । तत्र सर्वत्र दुःख हि जन्ममृत्युभयादिभिः ||७11 सहन्ते हि परं दुःखं जीवाः कर्मोदयादिह । यावर कर्मसम्बन्धस्तावखं मयेन्ननु ॥७॥ केवलं सुखिनः सिद्धाः कर्मकलादूरगाः । जन्ममृत्युज्यतीतास्ते त्रिलोकशिखरे स्थिताः ॥७२॥ एवं भिषेक करते हैं, वे उसा भवमें सम्यग्दर्शन धारण कर इन्द्रका पद प्राप्त करते हैं ॥६४॥ जो भव्यजीव भगवान् जिनेन्द्रदेवके प्रतिबिम्बके चरण कमलोपर सुन्दर कमल चढ़ाते हैं,वे वर्ग में जाकर अनेक देवांगनाओंसे सदा पूजे जाते हैं ॥६५॥ जो भव्यजीव जिनबिम्बके चरण कमलोंपर चन्दनके रसका लेप करते हैं, वे स्वर्गमें जाकर देवोंके द्वारा अमृतरूपी गंधसे सदा पूजे जाते हैं ॥६६॥ जो जीव शुभ भावोंसे सरागसंयम धारण करते हैं, ा भगवान् जिनेन्द्रदेवके शासनको प्रकाशित करते हैं और विशेष रीतिसे प्रभावना करते हैं; वे जीव स्वर्गलोकमें जाकर देव होते हैं ॥६७॥ वास्तपमें देखा जाय तो स्वर्गमें भी सदा रहनेवाला निर्विकार और समस्त कर्मरूपी मलसे रहित ऐसा अपने आत्मासे उत्पम हुआ उत्कृष्ट स्वर्ग नहीं है। किंतु वहाँपर मनसे उत्पम हुआ महादुःख बहुत ही अधिक होता है, जो कि संसारको बढ़ानेवाला होता है और चिंता-संतापको उत्पन्न करनेवाला होता है ॥६८-६९॥ इन तीनों लोकोंमें वास्तवमें कहीं भी सुख नहीं है, किंतु इन तीनों लोकोमें सब जगह जन्म-मरण और भय आदिसे होनेवाला दुःख ही दुःख भरा हुआ है ॥७॥ ये जीव कर्मोंके उदयसे ही परम दुःख सहन करते हैं । इसलिये जब तक काँका संबंध है, तब तक इस जीवको अवश्य ही दुःखोंको सहन
करना पड़ता है ॥७१।। यदि संसारमें कोई सुखी है तो कर्ममलकलंकसे रहित, जन्म-मरणसे सर्वथा रहित Sil और तीनों लोकोंके शिखरपर विराजमान ऐसे सिद्ध परमेष्ठी ही सुखी हैं ॥७२॥ इस प्रकार बुद्धिमानोंको
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