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०प्र०
॥१७१॥
एकविंशतितमोधिकारः।
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दग्धं ध्यानाग्निना कर्मेन्धनराशिं किलात्मनः । येनात्र योगिनाथेन बन्दे तं मुनिसुव्रतम् ॥२॥ संस्थानान्तर्गतं ध्यानं पतुर्धा वर्णितं जिनः । पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् ।.२५ पभेदात्मक द्रव्यं नानाकारेण संस्थितम् ! वा शरीरगतं द्रव्य पिण्ड इत्यभिधीयते ॥३॥ पिण्डे तिष्ठति यश्वात्मा विकारपरिवर्जितः । तत्तस्यालम्बनत्वेन पिण्डस्थध्यानमुच्यते ॥ पिण्डस्ये धारणाः पञ्च जिनेन्द्रः प्रतिपादिताः । समालम्बेन तासां हि स्यान्स्वात्मानुभवो महान् ॥६॥ पारणाभिर्मनः शीघ्र स्थिरतां याति चात्मनि । शुद्धात्मचिन्सने तामिदृढता स्याच्छुभप्रदा १६॥ सा ध्यानाभ्यास
जिन्होंने ध्यानरूपी अमिसे अपने आत्माके समस्त कर्मोके समूहको नष्ट कर दिया है, ऐसे योगियोंके स्वामी भगवान मुनिसुव्रतनाथको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ संस्थानके अंतर्गत जो ध्यान है, उसे वह भगवान जिनेन्द्रदेवने चारप्रकारका बतलाया है। पिंडस्थ. पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत: ये चार उसके मेद हैं ॥२॥ अनेक प्रकारसे ठहरा हुआ और शरीरमें प्राप्त हुआ ऐसा जो पांच प्रकारका द्रव्य है, उसको पिंड कहते हैं ।।३।। इस पिंडमें जो आत्मा विकाररहित ठहरा हुआ है, उसका अवलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है, उसको | | पिंडस्थ ध्यान कहते हैं | पिंडस्थ ध्यानमें भगवान जिनेन्द्रदेवने पांच प्रकारकी धारणा बतलाई है। इन पांचों धारणाओंके समालम्बनसे अपने आत्माका महान् अनुभव होता है ।।५।। इन धारणाओंसे यह मन | अपने आत्मामें शीघ्र ही स्थिर हो जाता है और इन्हीं धारणाओंसे शुद्ध आत्माके चिन्तवन करनेमें शुभ में भावोंको उत्पम करनेवाली अस्पन्त हड़ता होती है ॥६॥ वह धारणा ध्यानका अभ्यास करनेवालोंके लिये