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कळणामाचा सोपानिका मता । सया सुलभरूपेण ध्यानं स्याद्विगतभ्रमम् ॥७पार्थिवो प तथाग्नेयी श्वसना पारणी परा । सस्वरूपवतीया धारणा हि यथाक्रमम ॥८मध्यलोकसम योगी धारयेत्तीरसागरम् | शांत रम्यं च निःशब्द कझोलाविविवर्जितम् ||गम्भीरं दुग्धवगौर मधित्साहादनकारकम् । यचिन्तनेन चित्तेऽस्मिन् स्यादयं न मनागपि ॥१०॥ तन्मध्ये चिन्तयेद्धीरोऽब्ज साहसदलान्वितम् । पीतवर्ण सुहेमा जम्बूद्वीपप्रमाणकम् ॥११॥ सन्मध्ये च स्मरयोगो कर्णिकां पीतवर्णिकाम् । मुख्यमेरुप्रमाणाभां रम्यामानन्दकारिकाम् ॥१॥ सिंहासनं च चंद्राभं कर्णिकायां विचिंतयेत् । श्रात्मानं स्थापयेत्तत्र प्रशांतं दिव्यकायकम् ॥१शा कार्ममाशनोक गपादिनाशने पटम । निर्विकारं स्थिरं चितं पश्चाक्षविषयातिगम् ।।१४।। सद्धयाता तादृशं रूपं भूयो भूयः समभ्यसेत् । ध्यायेश चिन्तयेन्नित्यमेकाममनसा सदा ॥१५॥ पहली सीढ़ी है । इस धारणासे भ्रमको दूर करनेवाला उत्तम ध्यान सहज रीतिसे प्राप्त हो जाता है ॥७॥ | पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारुणी और तस्वरूपवती ये धारणाके यथाक्रमसे पांच मेद हैं ||८॥ किसी मी योगीको मध्यलोकके समान क्षीरसागरकी कल्पना करनी चाहिये । वह क्षीरसागर शांत हो, मनोहर हो,
शन्दरहित हो और कल्लोल वा लहरोंसे रहित हो ॥९॥ वह क्षीरसागर गंभीर हो, दूध के समान गौर वर्ण हो, M और मनको आहादन करनेवाला हो; ऐसे क्षीरसागरके चिन्तवन करनेसे हृदयमें थोड़ासा मी प्रम नहीं रहता
॥१०॥ धीर वीर योगीको उस क्षीरसागरके मध्यभागमें जम्बूद्वीपके समान, सुवर्णके समान देदीप्यमान
पीले रंगका, एक हजार दलवाले कमलका चितवन करना चाहिये ॥११॥ उस कमलके मध्यभागमें मेरुके समान Hil पीले रंगकी एक कर्णिकाका चितवन करना चाहिये, वह कणिका मनोहर, आनंद उत्पन्न करनेवाली होनी
चाहिये ॥१२॥ उस कर्णिकामें चन्द्रमाके समान एक सिंहासनका चितवन करना चाहिये । उस सिंहासनपर दिव्य शरीरको धारण करनेवाले अत्यन्त शांत आत्माको स्थापन करना चाहिये ।।१३॥ वह आत्मा अशुभ कर्मोंके नाश करनेमें तल्लीन है, रागद्वेषको नष्ट करनेमें चतुर है, निर्विकार है, उसका चिच स्थिर है और वह पांचों इंद्रियोंके विषयोंसे रहित है । ध्यान करनेवालेको इसप्रकारके आत्माके स्वरूपके चितवनका
बार बार अभ्यास करना चाहिये । तथा एकाग्र मनसे नित्य ही ऐसे आस्माका ध्यान और चितवन करना व वाहिये ॥१४-१५॥ इसको पार्थिवी धारणा कहते हैं। तदनंतर उस योगीको नामिमंडलके मध्य में चिसको