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सु०प्र० मितीप्यते । सम्यक्त्वस्य च माहात्म्यात्स्वानुभूतिः प्रजायते ॥२७|| सम्यक्त्वं दुर्लभं लोके यतः अयोभिसाधकम् । तदनः
न क्वचित्सिद्धिः सुखलेशः कदापि ना अक्षातीतं निरावाचं स्वातन्यं दुःखदूरगम् । सुखमात्यंतिकं श्रेष्ठं सम्यक्वेन १६
प्रजायते ॥२६॥ सर्वासामर्थसिद्धीनामिन्द्रचधादिसम्पदाम् । आइन्त्यसम्पदां सिद्धिः सम्यक्त्वेन प्रजायते ॥३०॥ त्रिकाले त्रिजगति श्रेयो विद्यते देवदुर्लभम् । तदापि प्राप्यते शीघ्रं सम्यक्त्वन महात्मभिः ||३१|| कल्याणं मंगलं भद्र सर्व च परमं पदम् । सम्यक्त्वेन हि सिध्यन्ति चानेकमुखसाधकम् ॥३२।। तदेव पुरुषार्थस्तु परमार्थप्रसाधकः । श्रात्मैव पुरुषश्चोक्तः सभ्यनत्वेन सिदधति येन विनात्र संसारे चिरं भ्राम्यन्ति जन्तवः । जन्ममृत्युजराकीर्णेऽनेक. दुःखप्रदायके ||३४|| ज्ञानं येन विनाऽज्ञानं विपरीतं नसंशयम् । मिध्याज्ञानं भवेद्वात्र दिग्मूढस्येव भ्रान्तकम् ॥३५॥ येन | सम्यादर्शनपूर्वक जो ज्ञान होता है उसको सम्यम्ज्ञान कहते हैं तथा इसी सम्यग्दर्शनके माहात्म्पसे स्वानुभूति प्रगट होती है ॥२७॥ इस संसारमें सम्यग्दर्शन ही अत्यन्त दुर्लभ है, क्योंकि मोक्षरूप कल्याणकी सिद्धि | इस सम्यग्दर्शनसे ही होती है । सम्यग्दर्शन के बिना न तो मोक्षकी सिद्धि होती है और न कमी सुखका | ) लेश भी प्राप्त होता है ॥२८॥ जो सुख इन्द्रियोंसे रहित है निरायाध है, स्वतंत्र है, दुःखोंसे रहित है, श्रेष्ठ | है है और अनन्त है वह सुख सम्यग्दर्शनके ही प्रभावसे उत्पन्न होता है ।।२९॥ समस्त पदार्थोकी सिद्धि, इन्द्र | [5] चक्रवर्ती आदिकी महासंपदाओंकी सिद्धि और भगवान अन्तिदेवकी महाविमतियोंकी सिद्धि इस 2) के ही प्रभावसे उत्पन्न होती है ॥३०॥ तीनों कालोंमें और तीनों लोकोंमें जो कल्याण देवोंको भी दुर्लभ है । SP/ वह कल्याण भी महात्मा पुरुषोंको इस सम्यग्दर्शनके प्रभावके शीघ्र ही प्रगट हो जाता है ।।३१।। इस संसारमें
जो कल्याण हैं, जो मंगल हैं, जो भद्र हैं, जो उत्तमोत्तम परमपद हैं और जो अनेक सुखोंके साधक हैं, वे सब | | इस सम्यग्दर्शनसे ही सिद्ध हो जाते हैं ३२॥ इस संसार में सम्यग्दर्शन ही पुरुषार्थ है क्योंकि परमार्थकी | सिद्धि इसी सम्यग्दर्शनसे होती है । इस संसारमें आत्मा ही पुरुष कहलाता है और उसकी सिद्धि सम्यग्दर्शन | से ही होती है ॥३३॥ इसी सम्यग्दर्शनके बिना ये जीव जन्म मरण, और बुढापासे भरे हुए तथा अनेक महादुःख देनेवाले इस संसारमें चिरकाल तक परिभ्रमण करता रहता है ॥३४॥ इस सम्यग्दर्शनके विना ही सान अज्ञान कहलाता है, विपरीत कहलाता है और संशयसहित कहलाता है। वह मिथ्याज्ञान जिस प्रकार |
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