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विनात्र चारित्रं कुचारित्रं प्रजायते । संसारवर्द्धकं तद्धि नानादुःखनिदानकम् ||३६|| शानचारित्रयोः सम्यक् व्यपदेशकरं हि तत् । सम्यग्ज्ञानं सुचारित्रं तस्मादेव प्रजायते ||३|| तथ धर्मतरोर्मूलं बीजं वा मुख्यसाधकम् । संसाराब्धौ | तरीतुं तत्कर्णधारो यतो मतम् ||३८|| सम्यक्त्वस्य प्रभावेन तिर्यो यान्ति देवताम् । चांडालोऽपि च देवः स्वात्स्वर्गे नमस्कृतः ॥ ३६॥ सम्यक्त्वमहितो गेही सम्यक्त्वरहितान्मुनेः । पूज्यो वन्यो द्दि मार्गस्थो न मुनिर्मार्गहीन कः ||४०|| सम्यक्त्वस्य च माहात्म्यं सम्यग्जानन्ति रायाः जनाः सद्यः तीर्थेशाः हि भवन्ति ते ॥४१॥ परमाह्लादरूपेय आत्मनि प्रत्ययं रुचिम् । श्रद्धां करोति भावेन स सम्यक्त्वं समश्नुते ||४२|| देवशास्त्रगुरूणां च सत्यरूपसुशालिनाम् । श्रद्धानं हि विनिर्दोषं सम्यक्त्वं तदिच्यते ||४३|| जिनागमस्य चाज्ञां ये सदा निःशंकचेतसा । स्वकल्या
प्रकार दिग्भ्रम होनेवाले मनुष्यको परिभ्रमण कराता है उसी प्रकार इस जीवको भी अनेक योनियों में परिभ्रमण कराता है ||३५|| इसी सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र मी कुचारित्र वा मिथ्याचारित्र कहलाता है । यही मिथ्याचारित्र जन्ममरणरूप संसारको बढ़ानेवाला है और अनेक महादुःखका कारण है || ३६ || यह सम्यग्दर्शन ज्ञान और चारित्रको सम्यक करनेवाला है तथा सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र इसी सम्यग्दर्शनसे उत्पन्न होते हैं ||३७|| यही सम्यग्दर्शन धर्मरूपी वृक्षका मूळ है, वा धर्मका बीज है अथवा धर्मका मुख्य साधक है, संसारस्वर्ग में जाकर देव रूपी समुद्रसे पार होनेके लिये यह सम्यग्दर्शन कर्णधार वा खेवटिया गिना जाता है ||३८|| इसी सम्यग्दर्शनके प्रभावसे तिर्यञ्च मी देव हो जाते हैं और इसी सम्यग्दर्शन के प्रभावसे चांडाल होता है और अन्य सब देव उसको नमस्कार करते हैं ||३९|| इस सम्यग्दर्शनसे सुशोभित होनेवाला गृहस्थ मी सम्यक्त्वरहित मुनिसे पूज्य और वन्दनीय गिना जाता है तथा वह सम्यक्स्वी गृहस्थ मोक्षमार्ग में स्थित गिना जाता है । किंतु सम्यक्स्वरहित मुनि मोक्षमार्गसे हीन माना जाता है ॥४०॥ इस सम्यग्दर्शनके माहात्म्यको तीर्थकर ही अच्छी तरह जानते हैं, क्योंकि इसी सम्यग्दर्शनको पाकर ये जीव शीघ्र ही तीर्थकर हो जाते हैं ||४१|| जो पुरुष परमानन्दमय शुद्ध आत्मामें प्रत्यय करता है, उसमें कचि रखता है और श्रद्धान करता है वही जीव सम्यग्दर्शनको प्राप्त होता है ||४३|| यथार्थ स्वरूपको धारण करनेवाले देव, शास्त्र और गुरुका दोषरहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है ||४३|| जो पुरुष अपना बात्म
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