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खाय मन्यन्ते जिनवत्ते धरन्ति तत् ||४४|| श्रेयोर्थिनां सदा मान्या जिनाला जिनशास्त्रतः । जिनाशा सैत्र शास्त्रं हि जिनो वेत्ति च मन्यताम् ||४५|| तस्मात्सम्यक्त्वमाराध्यं भव्यजीवेन सर्वदा । तदेव नोददं ज्ञेयं मुख्यं रत्नत्रये सदा ||४३|| यदि च भवविरक्तः मोक्षसौख्ये सुरक्तः । झटिति कुरु च भक्त्या देवशास्त्रे प्रतीतिम् । धर च निजहितार्थ श्रीजिनाशां स्वचित्ते । लभ लभ हि सुधर्म शुद्धसम्यक्त्ववन्तम् ॥४७॥
॥ इति सुधर्मध्यानप्रदीपालंकारे सम्यक्त्ववर्णेनोनाम द्वितीयधिकारः ॥
कल्याण करनेके लिये निःशंक हृदयसे जिनागमकी आज्ञाको मानते हैं वे ही पुरुष जिनेन्द्रदेव के समान निर्मल सम्यग्दर्शनको धारण करते हैं || ४४|| अपने आत्माका कल्याण चाहनेवाले पुरुषोंको जैन-शास्त्रोंके अनुसार
भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञा अवश्य मान लेनी चाहिये । क्योंकि भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञा ही शास्त्र समझना चाहिये ॥४५॥ | इसलिये भव्य जीवों को इस
हैं और भगवानकी आज्ञा ही भगवान हैं, ऐसा सम्यग्दर्शनका सदा आराधन करते रहना चाहिये । यही सम्यग्दर्शन मोक्ष देनेवाला है और रत्नत्रयमें सदा मुख्य है ॥ ४६ ॥ हे भव्य जीव १ यदि तू संसारसे विरक्त हुआ है और मोक्ष सुखमें अनुरक्त हुआ है तो शीघ्र ही भक्तिपूर्वक देवशास्त्र और गुरुका श्रद्धान कर, तथा अपने आत्माका कल्याण करने के लिये अपने हृदय में भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाको धारण कर और शुद्ध सम्यग्दर्शनसे सुशोभित होनेवाले श्रेष्ठ धर्मको अथवा इस ग्रन्थ बनानेवाले सुनिराज सुधर्मसागरको धारण कर ||४७||
इस प्रकार मुनिराज श्रसुधसागरप्रणीत सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकार में सम्यग्दर्शनको वर्णन करनेवाला यह दूसरा अधिकार समाप्त हुआ ।
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