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सु०प्र०
तृतीयोधिकारः॥
तत्त्वप्रकाशकं मोक्षदायकं सुखकारकम् । तं श्रीमदजितं वन्दे जिनशासनदीपकम् ॥२॥ तस्वमबुध्यमानस्य ध्यानेन किं प्रयोजनम् । क्रियां कर्वन् स मूढात्मा कर्मबन्धं करोत्यलम् ॥२॥ नात्मरूपं विजानानि वस्तुतो मोहवान् कुधीः । ध्यानेन तस्य का सिद्धिर्जायते तपसाथवा ॥३॥ तस्यातत्त्वं न जानाति यो मोहतिनिरावृतः । किमर्थ कुरुते सोऽत्र ध्यानस्य च विडम्बन्धम् ॥४॥ आत्मबोधविहीनस्य मिथ्यात्वमसितस्य च । तीवेण तपसा किं स्याद् ध्यानेन दुर्द्धरेण वा ॥५|| आत्मतत्त्वं न जानाति स्वस्वरूपं न वेति यः । संसारवर्द्धक ध्यान हा किमर्थं करोति साशा हयोपादेय
जो अजितनाथ भगवान तत्वोंको प्रकाशित करनेवाले हैं मोक्षको देनेवाले हैं सपको सुख देनेवाले हा है और जिनशासनको प्रकाशित करनेके लिये दीपकके समान हैं ऐसे भगवान अजितनाथको मैं वन्दना
करता हूँ ॥१॥ जो पुरुष तच्चोंका स्वरूप नहीं जानता उसके लिये ध्यान करना व्यर्थ है । वह मूर्ख ध्यानकी | क्रिया करता हुआ मी केवल कर्मोका ही बन्ध करता है ॥२॥ वास्तवमें देखा जाय तो मोह करनेवाला | अज्ञानी आत्मा आत्माके स्वरूपको नहीं जान सकता । फिर उसके ध्यान और तपश्चरण कैसे हो सकते हैं ? | और ध्यान वा तपस्यासे ही उसकी सिद्धि कैसे होसकती है ? ॥३॥ जो पुरुष मोहरूपी अन्धकारसे वंचित होकर तत्त्व और अतत्त्वके स्वरूपको नहीं जानता वह इस संसारमें ध्यान करनेकी विडम्बना क्यों करता है ? ॥४॥ जो पुरुष आत्मज्ञानसे रहित है और मिथ्यात्वसे ग्रसित है उसके लिये तीव्र तपश्चरणसे अथवा दुर्घर ध्यानसे | क्या लाभ हो सकता है ? ॥५॥ जो पुरुष आत्मतत्वको नहीं जानता और अपने स्वरूपको नहीं जानता, आश्चर्य है कि वह संसारको बढ़ानेवाला ध्यान क्यों करता है ? ॥६॥ जिस पुरुषके हेय और उपादेयका
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