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भाग
॥२३॥
Kजैनधर्म विधत्ते चेकदाचित्पुण्ययोगतः । प्रत्येति न जिनाशा वा जिनागमं सुभावतः ॥३३॥ सुगुरु' मन्यते व
बहिरात्मा विमोहतः । पृष्ठे निंदा करोरयेव जैनोऽपि दुष्टभावतः ॥३४॥ देवशास्त्रगुल्न धर्म बहिष्टया हि सेवते । अन्तईच्या न श्रद्धेति न प्रत्येति स भावतः ॥३२॥ विषयभोगसंबंधि शासच बहु मन्यते। जिनागर्म कुतर्केण चान्यथा कुरुते कुधीः ॥३६।। एवं हि बहिरात्मासौ आत्मज्ञानपराङ्मुखः । धृत्वापि जिनमेषं हि विपरीतं करोति सः ॥३७॥ बहिरात्मा ततस्त्याज्यः जिनलिङ्गस्थ धारकः । स मायापरिणाम बुदेली 4 परान् ॥३चा उपादेयं न गृहाति हेयं नैव जहाति च । बहिरात्मा बद्दिभूतः शिवमार्गारसुधर्मतः ||३|| मिथ्यात्वदृषितं मोहतमः पात्मन् निवारय । चिज्ज्योतिषा स्वसंवेदमयेन भानुना यथा ॥३०|| एकोहं किं स्वरूपोहं के गुणाः सन्ति मे खलु । देहस्य लक्षणं किं वा कर्मबंधः कथं मम ॥४१॥ इत्यं विचार्यमाणेन सम्यग्ज्ञानेन तत्त्वतः। आत्मबोधो भवत्सधः स्वपरभेदको
उदयसे वह बहिरात्मा जैनधर्मको भी धारण कर ले तो मी वह अपने भावोंसे न तो जैनधर्मकी आज्ञाको | मानता है और न जिनागमको मानता है ॥३२॥ मोहनीय कर्मके उदयसे वह बहिरात्मा श्रेष्ठ गुरुओंको मी
नहीं मानता । षह जैनी होकर भी अपने दुष्ट परिणामोंसे उन गुरुओंकी निंदा करता है॥३४॥ वह बहिरात्मा | देव, शास्त्र, गुरु और धर्मको वाह्य दृष्टिसे सेवन करता है, अन्तर्दृष्टिसे न उनका श्रद्धान करता है और
न उनपर विश्वास करता है ॥३५।। वह अज्ञानी विषयमोगसंबन्धी शास्त्रोंको ही मानता है और अपने कुतर्कसे जिनागमको विपरीत करनेकी चेष्टा करता है ॥३६|| इसप्रकार वह बहिरात्मा आत्मज्ञानसे पराङ्मुख रहता है । तथा जिनमेषको धारणकर विपरीत कार्य करता है ॥३७॥ इसलिये जिनलिंगको धारण करता हुआ मी | बहिरात्मा त्याग ही करने योग्य है, क्योंकि वह मायाचारी अपने मायाचारसे दूसरे लोगोंको ठग लेता है। ॥३८॥ बहिरास्मा जीव उपादेयको ग्रहण नहीं करता, हेयका त्याग नहीं करता तथा मोक्षके मार्गसे और श्रेष्ठ | | धर्मसे वह अलग ही रहता है ॥३९॥ हे आत्मन् ! स्वसंवेदनरूप और चैतन्यमय ज्योतीरूप सूर्य के द्वारा | मिथावसे दूषित ऐसे मोहरूपी अन्धकारको दूर कर ॥४०॥ तथा में कौन हूँ मेरा क्या स्वरूप है, मुझमें | कौन कौन गुण हैं, शरीरका लक्षण क्या है और कर्मोका बन्ध कैसे होता है, इस प्रकार विचारपूर्वक होनेवाले सम्यग्ज्ञानके द्वारा स्वपर-मेदको सचित करनेवाला वास्तविक आत्मज्ञान शीघही हो