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मु०प्र०
॥२२॥
रात्मेति मोहतः ॥२४|पुत्रो मे मे कलत्रं मे मित्रं मे बन्धुरत्र मे | इति 'मे में प्रकुर्वाणः बाल्मबदुध्या विमुख्यत रक्षा बहिर्द्रव्येषु सर्वेषु बहिरात्माभिवाक्छति । तस्वरूपोहमेवास्मि मत्तो नान्यानि तानि वै ॥२६|| हा हा मोहविलापेन तत्त्वमवेत्यतत्त्वके । तत्त्वे वाऽतत्त्वकं वेत्त मोही किं किं करोति न ॥२७॥ बहिरास्मैव जानाति विश्वमात्ममयं भ्रमात् ।
आत्मानं नैव जानाति देहस्थं शानगोचरम् ॥२८॥ अग्निहि विद्यते काष्ठे मूढोग्नि वेचि नैव सः । काठमात्रं विजानाति चाज्ञानी किमवैति सः ॥२६॥ बहिरात्मा ततश्चित्ते कर्ता भोक्ता च मन्यते । मनोक्षविषये वा द्रव्ये वा स्वात्मविभ्रमात् ॥३०॥ एवं हि बहिरात्मासौ परद्रव्ये विमुहाति । स्वात्मानं नैव जानाति तत्त्वातस्वं हिता| हितम् ॥३१॥ बहिरात्मा हि हेयोसौ शिवमार्गविदूरगः । इन्द्रियविषये लोनः संसारसुखवाञ्च्छकः ॥३२॥ हैं तथापि बहिरात्मा मोहनीय कर्मके उदयसे उनमें भी आत्मबुद्धि कर लेता है, उनको भी अपना समझ लेता है ॥२४॥ यह पुत्र मेरा है, स्त्री मेरी है, मित्र मेरा है और ये भाई मेरे हैं इस प्रकार 'मेरा मेरा' करता | हुआ यह जीव अपनी आत्मबुद्धिको छोड देता है ॥२५|| बहिरात्मा जीव समस्त बाह्य पदार्थों | इच्छा करता है और "मैं इन वाह्यद्रव्यरूपही ये वाह्य पदार्थ मुझसे मित्र नहीं है। इस प्रकार मिथ्या
बुद्धि धारण करने लगता है ॥२६॥ दुःखका विषय है कि मोहनीय कर्मके उदयसे यह पहिरात्मा अतच्चोंको | तव समझ लेता है और तत्वोंको अतत्व समझ लेता है सो ठीक ही है क्योंकि मोही पुरुष क्या क्या नहीं | | करता है ॥२७॥ बहिरात्मा अपने भ्रमसे समस्त संसारको आत्ममय समझता है। परंतु शरीरमें रहनेवाले |
झानगोचर आत्मा को नहीं जानता ||२८|| यद्यपि लकड़ीमें ही अग्नि है परंतु अज्ञानी जीव उस अग्निको SEI नहीं जानता वह केवल लकड़ी को ही जानता है । सो ठीक कही है क्योंकि अज्ञानी कुछ नहीं जानता है || ॥२९॥ बहिरात्मा पुरुष अपने आत्माकी भूलसे मन और इंद्रियोंके विषयभूत आम पदार्थोंमें अपनेको कर्त्ता |
और भोक्ता मान लेता है ।।३०॥ इसप्रकार बहिरात्मा जीव वाह्य द्रव्योंमें मोहित हो जाता है । इसलिये वह | न तो अपने आत्माको जानता है न तच अतस्त्रको जानता है और न हित अहितको जानता है ॥३१॥ बहिरात्मा जीव मोक्षमार्गसे दूर रहता है, इंद्रियोंके विषयों में लीन रहता है और संसारिक सुखोंकी इच्छा | करता है, इसलिये वह बहिरात्मा हेय वा लाग करने योग्य समझा जाता है ॥३२॥ यदि किसी पुण्यकर्मक