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स्थिरतां जन्यमृत्युतः ॥६॥ पुनः पुनश्च जन्मानि मरणानि पुनः पुनः । कर्मणो धशतो जीवः करोत्यनादिकालतः ।।७। पुत्रमित्रादयः सर्वे मृत्यु यास्यन्ति यान्ति च । तथाप्यात्मन् न जानासि संसारस्य विनश्यताम् । शरीरं शीर्यते तेत्र गल- | स्यायुः तणं क्षणम् । तथाप्यात्मन् न जानासि संसारस्य नित्यताम् ॥६॥ विवादमंगलं प्रातभृत्युस्तस्यापराहके। क्षणमेकं न संसारे स्थिरता कस्य दृश्यते ॥१०|| स्वप्नवद् श्यते लोके पुत्रादीनां समागमः । इन्द्रजालोपमं झेयं भोगवस्तु धनादिकम् ।।१शा इष्टानिष्टं हि विज्ञेयं भोगदेहकुटुम्बकम् । तेषां नष्टे नचाश्चर्य विद्यते शृणु घेतन ॥१२॥ भवस्यानित्यता झात्वा चात्मानं शाश्वतं शिवम् । सर्वभोई प्रपंचं च त्यक्त्वात्मान' भजाम्यहम् ।।१३||
॥ मशरणभावना ।।। पोताच्च्युतस्य काकस्य शरणं नास्ति सागरे । गृहीतयनपाशस्य जीवस्य शरणं नहि ॥१४|| त्रानारो सन्ति संसारे | • भंगुर है, चिरकालसे परिभ्रमण करते हुए इस जीवने इस संसारमें जन्ममरणसे कभी स्थिरता नहीं पाई ।।६।। 8 | काँके परवश पड़ा हुआ यह जीव अनादिकालसे बार बार जन्म लेता है और चार बार मरण करता है |७|| | ये सब पुत्र-मित्रादिक मृत्युको प्राप्त होते हैं और आगे होंगे । तथापि हे आत्मन् ! तू इस संसारकी विनश्वरताको | | अमीतक नहीं जान सका है ।।८॥ यह तेरा शरीर क्षण क्षणमें नष्ट हो रहा है, आषु क्षण क्षणमें नष्ट हो रही है। | हे आत्मन् ! तो भी तू इस संसारकी अनित्यताको नहीं जानता है ॥९॥ प्रातःकाल जिसका विवाह मंगल
हो रहा है, सायकाल उसीकी मृत्यु हो जाती है । इस संपारमें क्षणमात्रभी किसी की स्थिरता दिखाई नहीं देती | | है ॥१०॥ इस संसारमें पुत्रमित्रादिकका समागम स्वप्न के समान दिखाई देता है, और धनादिक भोगोपमोगों
का संग्रह इन्द्रजालके समान जान पड़ता है ।।११॥ हे चेतन तू सुन, भोग शरीर और कुटम्ब आदि सब पदार्य इष्ट भी हैं और अनिष्ट भी है; इनके नष्ट होने में कोई किसी प्रकारका आश्चर्य नहीं है ।।१२॥ इसलिये में इस संसारकी अनित्यताको समझकर और आत्माको कल्याणमय नित्य समझकर मोहके समस्त प्रपञ्चोंका त्याग करता हूँ और अपने आत्माका चितवन करता हूँ ।।१३॥
रामशरणानुप्रेघा ॥ जिसप्रकार कोई कौआ महासागरमें चलते हुए जहाजसे उड़ जाय तो फिर उसे कहीं मी शरण नहीं |