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षष्ठोऽधिकारः।
अनन्तसुखदातारमनन्तभवनाशकम् । बन्देहं सुमतिं देवं दिव्यज्ञानप्रकाशकम् ॥२॥ परवैराग्यसिद्धयर्थ भवभ्रमणहानये । भाषयाभ्यधुना भावाद्भावना द्वादशात्मनाम IRI
अनित्यभावना॥ घपलेब चला लक्ष्मीर्योवनं घनबिन्दुवत् । रम्भास्तम्भ इवापिंडः सर्वमेतद्धि नश्वरम् ॥३॥ चुचुदा इव ते भोगा विषमा दुःखदाः सदा । निस्साराः पारसंयुक्का दृष्टिमात्र स्थिरा इमे ||४|| परावर्ते च संसारे नदीवगोपमे चले । मास्त्यत्र स्थिरताप्यात्मन् भोगादीनां चलात्मनाम् ॥शा क्षणभंगरसंसारे नानायोनिसमाकुले । चिरं भ्राम्यन लेभेऽत्र ___ जो सुमतिनाथ भगवान् अनन्त सुखको देनेवाले हैं, अनन्त संसारको नाश करनेवाले हैं और दिव्य ज्ञानको प्रकाशित करनेवाले हैं; ऐसे भगवान् सुमतिनाथकी मैं बन्दना करता हूँ ।।१।। अब मैं परमवैराग्यकी सिद्धिके लिये और संसारके परिभ्रमणको नाश करनेके लिये अपने शुभ परिणामोंसे बारह भावनाओंका चितवन करता हूँ ॥२॥
॥ अशरणानुप्रेचा ॥ - इस संसारमें लक्ष्मी विजलीके समान चञ्चल है, यौवन बादलकी बूंदके समान नश्वर है। | और शरीर केलेके थम्भके समान साररहित है। इसप्रकार सब नाशवान ही हैं ॥३॥ ये विषयमोग
सदा दुःख देनेवाले हैं, पानीके बुदबुदाके समान नश्वर हैं, पाप उत्पन्न करनेवाले हैं, साररहित हैं और देखनेमात्रके ही स्थिर हैं ।।४। यह परिवर्तनरूप संसार नदीके वेगके समान चञ्चल है, हे आत्मन् ! इसमें अत्यन्त चश्चल ऐसे भोगोंकी स्थिरता लेशमात्र भी नहीं है ।।५।। अनेक योनियोंसे भरा हुआ यह संसार क्षण
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