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भजामि ध्यानयोगतः । परद्रव्यस्य काशा ये निराशावादिनी जिनाः ॥४६|| निर्मोही निर्मयो भूत्वा चरामि जिनलिंगके : | कर्मकाष्ठं च संसारं दहामि ध्यानतोऽधुना ॥४७॥ इति वैराग्यनासाय भावयेद्भावनामिमाम् । दृढीकर्तुं हि निर्वेगं ध्यानाध्ययनसिद्धये ॥ द्वादशभावनसहिताः जीवा मोक्षं सदा प्रयान्त्येव । सततं च चिन्तयन्तु स्वात्मसुखां | भावना रम्याम् ॥४॥
॥ इति सुधर्मध्यानप्रदीपालकारे वैराग्यभावनानिरूपणो नाम पंचमोधिकारः ।।
म.प्र.
॥४३॥
करूँगा और निर्ममस्त्र भावोंसे अपने आत्माका चितवन करूँगा ॥४५॥ मैं अपने ध्यानके निमित्तसे अपने शरीर में | भी सब प्रकारकी आशा वा ममत्व छोड़ दूंगा, क्योंकि भगवान् जिनेन्द्रदेव निराशावादी (आशा वा इच्छाका त्याग करनेका उपदेश देनेवाले) होते हैं; वे भला परद्रव्योंकी आशा कैसे कर सकते हैं १ ॥४६।। मैं मोहरहित और गहरहिन होरि मिलिंग आरड करूँगा और अब ध्यानके निमित्तसे कर्मरूपी काठको और इस जन्ममरणरूप संसारको जला दंगा ॥४७॥ इस प्रकार वैराग्यको धारणकर ध्यान और अध्ययनकी सिद्धि के लिये तथा अपने वैराग्यको बढ़ानेके लिये आगे लिखी हुई बारह भावनाओंका चितवन करना चाहिये ।।४८|| जो पुरुष चारह भावनाओंका चिंतबन करता है, वह मोक्षको अवश्य जाता है, इसलिये भज्य जीवोंको आत्मसुख देनेवाली मनोहर बारह भावनाओंका चितवन सदा करते रहना चाहिये ॥४९॥ इस प्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरप्रणीत सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकारमें वैराग्यभावनाको निरूपण
करनेवाला यह पाँचवा अधिकार समाप्त हुआ।