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सु० प्र०
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क्रमाकं पठेत् । दण्डकपाठगाथां हि पठित्वा ध्यानमाचरेत् ||६६|| अपराजितमंत्रस्य गाथां ध्यानस्य सिद्धये । स कायोत्सर्गपूर्व हि पठेत्स्वात्मविशुद्धये ॥६७॥ इत्यादिकशुभं कृत्यं कृत्वा च शुभभावतः । श्रीजिनामाप्रमाणेन पश्चादुध्यानं समाचरेत् ||६८|| इति विविधविधि यः सत्क्रियासंश्रितं वा निजनिजशुभभावात् सर्वशुद्धिं विधाय । कुरु कुरु अतिशीघ्रं ध्यानकाले चिदात्मन् भवति तब सुधर्म ध्यानयोग्यं मनोशम् || ६६||
इति सुधर्मध्यानप्रवालङ्कारे ध्यानक्रियाप्ररूपणो नाम पंचदशोधिकारः ।
गाथाएं पढ़नी चाहिये और फिर ध्यानका प्रारंभ करना चाहिये || ६६|| ध्यान करनेवाले साधुको अपने आत्मा को विशुद्ध करनेके लिये और ध्यानकी सिद्धिके लिवे अपराजित मंत्रकी गाथाको ( णमोकार मंत्र को ) कायोत्सर्गपूर्व पड़ना चाहिये ॥६७॥ इसप्रकार भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाके अनुसार शुभ परिणामोंसे पहले ऊपर लिखी सब कियाएं करनी चाहिये और फिर ध्यानका प्रारंभ करना चाहिये ॥ ६८ ॥ हे चिदात्मन् ! इसप्रकार अपने अपने शुभ भावोंसे तब प्रकार की शुद्धि करके श्रेष्ठ क्रियाओंसे शोभायमान - ऐसी ऊपर लिखी अनेक प्रकारकी विधिको ध्यान के समय तू शीघ्र ही कर । इसीसे अत्यन्त मनोहर और ध्यानके योग्य श्रेष्ठ धर्म तुझे प्राप्त होगा ||६९ ||
इस प्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालंकार में ध्यानकी क्रियाओं का वर्णन करनेवाला पंद्रहव अधिकार समाप्त हुआ ।
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