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स०प्र०
म १३२॥
षोडशोऽधिकारः।
कर्मचक्राणि यो ध्यानयोग प्रविभिद्य च । परमात्मपदे पाप वंदे धर्म जिनेश्वरम् ॥।॥ सम्यम्रष्टिः प्रसन्नात्मा सज्जासिः शुद्धवंशजः । कुलाचारयुतः शान्तो जिताक्षो वीतमस्सरः RI: संसारदेहनिविष्णः श्रात्मनो हितचिन्तकः । भवभीरुर्महाधीरो जिनाज्ञाप्रतिपालक: ॥३तत्वश्रद्धानसंपन्नश्चरणाशक्तमानसः । निर्ममो निरहंकारी निर्व्यसनश्च साहसी | दयालुः शुद्धचेतकः कपायविषयाविगः । दुष्टचिन्तनहीनः स आर्तरौद्रपरामुखः ॥शा व्यवहारजनीतिज्ञोऽभिज्ञश्च देशकालयोः । जातिमान्यः क्रियाभिज्ञा लोकाचारप्रवर्तकः ॥६॥ इत्यादिगुणसम्पन्नो ध्याता स्यार
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जिन्होंने अपने ध्यानरूपी वज्रसे कर्मोंके समूहको भेदनकर परमात्मपद प्राप्त कर लिया है, ऐसे | जिनेन्द्रदेव भगवान धर्मनाथको मैं नमस्कार करता हूँ ॥१॥ आगे ध्याताका लक्षण कहते हैं-जो सम्यग्दृष्टि Rell है, जिसका आत्मा निर्मल है, जो राजाति और शुद्ध वंशमें उत्पन्न हुआ है, जो कुलाचारको पालन करता है, *
अत्यंत शांत है, इंद्रियों को जीतनेवाला है, ईर्ष्या-द्वेषसे रहित है, संसारशरीरसे विरक्त है, अपने आत्माके 5 हितको चितवन करनेवाला है, संसारसे भयभीत है, महाधीरवीर है, भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञाका पालन करता है, जो तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धान करता है, जिसका मन चारित्रके पालन करने में लगा हुआ है, जो ममत्वरहित है, अहंकाररहित है, व्यसनरहित है, साहसी है, दयालु है, जिसका हृदय शुद्ध है, जो कपाय और विषयोंसे रहित है, जो दुष्ट चिंतकनसे रहित है, आध्यान तथा रौद्रध्यानसे पराङ्मुख है, जो व्यवहारसे उत्पन्न हुई नीतिको जाननेवाला है, जो देश और कालको जानता है, जो जानिमें मान्य है, | क्रियाओंका जानकार है और लोकाचारकी प्रवृत्ति करनेवाला है। इसप्रकार जो अनेक गुणोंसे सुशोभित है