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|| मुमुक्षुकः । श्राद्धोऽथवा मुनिया॑ता भ्यानी भवति तत्त्वतः ला पतितो जातिहीनो वा शंकरो गोलकस्तया ।।
यो राज्यदंडितः क्रोधी मलिनाचारधारकः | रादिपीडितः सुद्रः नीचः मयादिसेवकः । अलोपाल में हीनः सः ध्याता नैष प्रशस्यते || किं ध्यान केन रूपेण कथं वा क्रियते हिवत् । श्रमातलक्षणं पस्तु कर्तुं कि युज्यते. ऽथवा ॥१॥ ध्यानस्य लक्षणं ध्यानभेदो ध्यानफलं तथा । तत्सर्व क्रमशो वक्ष्ये तस्मादात्महितेच्छया ॥१॥ ध्यानमेकाप्र. चिन्ताया रोधनं सर्वयोगतः । समासेन हि सजाय कर्मचक्रनिवारणम् ॥१२॥ एक ध्येय समालम्ब्य कायवागमनसापि वा । तत्रैकाप्रेन संलीनं ध्यान नदिह कथ्यते ॥१२॥ एकार्थ हि समालख्य मनसा मनुते हि तत् । अन्यत्सर्व परावृत्य ध्यान तदपि कथ्यते ॥१४॥ परालम्बननिमतमात्मैवात्मनि चात्मना । घात्मानं निर्विकल्पं हि चैकाप्रेण
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| और मोक्षकी इच्छा करनेवाला है, उसको ध्यान करनेवाला कहते हैं। वह ध्यान करनेवाला ध्यानी श्रापक |
भी हो सकता है और मुनि भी हो सकता है ॥२-७॥ जो पतित है, जो जातिहीन है, जो जातिभेकर है, वा
गोलक (विधवापुत्र) है, जो राजदंडित है, जो क्रोधी है, जो मलिन आचरणोंको धारण करनेवाला है, जो kill ज्वरादिक रोगोंसे पीडित है. जो क्षद्र है. जो नीच है, जो मद्य, मांस वा शहदको सेवन करनेवाला है और जो | अंगोपांगसे हीन है, ऐसा पुरुष ध्यान करनेका पात्र कमी नहीं हो सकता ।।८-९॥ ध्यान क्या है, वह किस प्रकार किया जाता है, अथवा कैसे किया जाता है, अथवा जिसका लक्षण ही मालूम नहीं है, वह ध्यान कैसे किया जा सकता है ? इसलिये ध्यानका लक्षण, ध्यानके मेद और ध्यानका फल आदि सब
अपने आत्माके हितकी इच्छासे अनुक्रमसे कहता हूँ ॥१०-११॥ अन्य समस्त चितवनोंको रोककर एका | मनसे किसी एक पदार्थका चितवन करना स्थान है। यह संक्षेपसे ध्यानका लक्षण है, यही ध्यान कर्मोक । समूहको नाश करनेवाला है ॥१२।। किसी एक पदार्थका अवलंबन लेकर मन, वचन, काय और एकाप मनसे | all लीन हो जाना ध्यान कहलाता है ॥१३॥ अथवा अन्य समस्त पदार्थोंका चितवन छोड़कर और 5
किसी एक पदार्थका अवलंबन लेकर एकाग्र मनसे उसका चिंतन करना ध्यान कहलाता है 15॥ १४ ॥ अथवा किसी दूसरे पदार्थका अवलंबन सर्वथा छोड़कर, यह आत्मा मन, वचन, काय,
और श्रेष्ठ परिणामोंसे एकाग्र चित्त होकर बिना किसी संकल्प-विकल्पके अपने ही आत्माके द्वारा