________________
हानं नाव्यक्तरूपतः । चचरनिन्द्रियाभ्यां चेहादिहानं न जायते ॥४६|एकमवप्रहमानं तस्य वाहादिक तथा । पशि . त्रिशतं भेदा मतिज्ञानस्य गोचराः ॥४७|| अन्येपि वहबो भेदाश्चार्थभेदाद्भवन्ति च । ते तु चागमतो झेया अद्भया तत्ववे. दिमिः ॥४८| कुमति कुभुतज्ञानं जायते हि कुदृष्टिनाम् । सुमति सुश्रुतज्ञानं जायते हि सुदृष्टिनाम् ॥४६॥ विभंगशानमध्यस्ति पुण्यतो हि कुदृष्टिनाम् । सम्यगवधिविज्ञानं तपसा हि सुदृष्टिनाम् ४०|| उपयोगमयोप्येवं जीवः सिद्धः स्वरूपतः। जीवोऽनन्तगुणाधारः सिद्धांते कथितो जिनैः ॥५१॥ अनादिकालतो मूर्तः कर्मनोकर्मभिर्वतः । स यावत्कर्म संयोगस्तावन्मूर्त इतीष्यते ॥२।। कर्मवन्धनसंयोगात्सशरीरी यतो जिनैः । ततो मूर्ती हि संसारे व्यवहारनयादसौ ॥५३॥ चंधो
यतो हि मूर्तस्य नामूर्तस्य भदेस्वचित् । बंधाभाये कथं मतः कर्मनोकर्मवान् कथम् ॥५४॥ स्पर्शा अष्टौ रसाः पंच द्वौ गंधौ li प्रकारके पदार्थोंको ग्रहण करने के कारण अड़तालीस मेदरूप होता है । इसप्रकार मतिज्ञानके सब का मिलाकर तीनसो उसीस मेद हो जाते हैं ॥४६-४७ पदार्थोके मेदसे इस मतिद्वानके और मी अनेक मेद |
हो जाते हैं वे सच तत्वोंके जाननेवालोंको श्रद्धापूर्वक आगमसे जान लेना चाहिये ॥४८॥ कुमतिमान और | कुश्रुतज्ञान मिथ्यादृष्टियों के होते हैं तथा सम्यक् मतिज्ञान और सम्यक् श्रुतज्ञान सम्यग्दृष्टियोंके होते हैं ॥४९॥ | all किसी पुण्यके उदयसे मिथ्याष्टियोंको मिथ्या अवधिज्ञान भी हो जाता है । तथा सम्यम् अवधिज्ञान तपश्चरण
के द्वारा सभ्यरायोको ही होता है ॥५०॥ इस प्रकार यह जीव स्वरूपसे उपयोगरूप सिद्ध है नया भगवान | जिनेन्द्रदेवने सिद्धांत शास्त्रोंमें इस जीवको अनंत गुणोंका आधार बतलाया है ।। ५१॥ यह जीव अनादिकालसे
कर्म नोकर्मोंसे मिला हुआ है इसलिये मूर्त मी कहलाता है परंतु जब तक कोंका संबंध रहता है तमी तक | II व्यवहार दृष्टि से मूर्त कहलाता है ॥५२।। फर्मबन्धके निमित्तसे यही जीव सशरीरी कहलाता है और इसीलिये | | व्यवहारनयसे संसार अवस्थामें यह जीव मृत कहलाता है ॥५३|| इसका मी कारण यह है कि बंध मूर्वका !
ही होता है अमृत पदार्थका कभी बंध नहीं हो सकता । तथा बंधके अभाव में वह मूत भी कैसे हो सकता | है और कर्मनोकर्मवान् भी कैसे हो सकता है ॥५४॥ निश्चय नयसे देखा जाय तो इस जीवमें न तो आठ
स्पर्श हैं न पांच रस हैं न पांच वर्ण हैं और न दोनों गंध हैं । इसीलिये भगवान जिनेन्द्रदेवने इस जीवको अमूर्त मानतलाया है ॥५५।। वास्तवमें देखा जाय तो एक पुद्गल तब ही मूर्त है क्योंकि स्पर्श रस वर्ण और गंध