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KANTRASKARISMANSHAKRAIN
'ह्रीं' च बीजाक्षरं ध्यायेश्चतुर्विंशतिरूपकम् ।।५२॥ चतुर्विंशतितीर्थानां महाविभवदायकम् । देवनागेन्द्रभूपानां जिनैवश्यकर मतम् ॥५३॥ भ्रमध्ये शीर्षके भाले संस्थाप्य भावपूर्वकम् । हृत्पद्मकर्णिकामध्ये वान्यन्त्र शुद्धभावतः ॥५४|| एकाप्रमनसा तत्र शुद्धध्यानबलेन च । पुनः पुनश्च संध्यायेत्प्रसम्ममनसाऽथवा ॥४५|अह बीजाचरं सिद्ध ब्रह्मरूपस्य काचकम् । भाले संस्थाप्य तद्भक्त्या ध्यायेंश्च शान्तिहेतवे m६स्वात्मसिद्धि. सतां शीघ्र जपनेनास्य जायते ।
आत्मा स्वात्मनि वा याति स्थिरतां धैर्यपूर्वकम् II पञ्चबीजाक्षरं तत्र पश्चानां परमेष्ठिनाम् । प्रणवेन युतं शुद्ध पश्चवर्णसमन्वितम् ॥५॥ विविधपक्षवोपेतं वश्यादिकरणक्षमम् । श्रद्धया परया भक्त्या शुद्धया प्यायश्च संतनम् ॥५६॥ क्रूरकर्माद्भवं पापं तत्क्षण च्छाम्यति स्वयम् । सर्वकार्याणि सिद्धयन्ति शुद्धमंत्रप्रभावतः ॥६०॥ श्रद्धान्वितो हि यो वीजाक्षर भी चतुर्विंशति तीर्थंकरस्वरूप है, प्रत्यक्ष फल देनेवाला है, शुद्ध है और जगत्का कल्याण करनेवाला * है; इसलिये इसका भी ध्यान करना चाहिये ।५२|| यह महामंत्र चौबीसों तीर्थंकरों की महाविभूतिको देनेवाला | है और देव, नागेन्द्र तथा नरेन्द्र आदिको वश करनेवाला है । ऐसा भगवान् जिनेन्द्रदेवने कहा है !॥५३॥ इम | | मन्त्रको भौओंके मध्यमें, मस्तकपर और ललाटपर भावपूर्वक स्थापन करना चाहिये, अथवा हृदयरूपी कमलकी |
कामें गा अगल हुन् भालसे स्थान करना चाहिये ॥५४॥ अथवा एकाप्रमनसे देदीप्यमान ध्यानके | बलसे अथवा प्रसन्न मनसे बार बार इस मन्त्रका ध्यान करना चाहिये ।।५५॥ 'अहम्' यह बीजाक्षर भी सिद्धस्वरूप है और ब्रह्मस्वरूपका वाचक है, इसलिये परिणामोंको शान्त करनेके लिये इस मन्त्रको ललाटपर | स्थापनकर भक्तिपूर्वक इसका ध्यान करना चाहिये ।।५६|| इस मन्त्रका जप करनेसे सजन पुरुषों को अपने
आत्माकी सिद्धि शीघ्र ही हो जाती है, तथा यह आत्मा अपने आत्मामें धैर्यपूर्वक स्थिर हो जाता है । ॥५७॥ Sil 'अहम्' इस बीजाक्षरमें पञ्चपरमेष्ठियोंके वानक पांच अक्षर हैं। यह शुद्ध मन्त्र प्रणवके माथ पञ्चवर्ण सहित
अनेक प्रकारके पल्लवोंसे सुशोभित वसा करनेमें वा अन्य काकि करने में समर्थ होता है; इसलिये श्रेष्ठ श्रद्धा भक्ति और शुद्धतापूर्वक इस मन्त्रका सदा ध्यान करना चाहिये १५८-५९। इस शुद्ध मन्त्रके : क्रूर काँसे उत्पन्न हुए पाप उसी क्षणमें स्वयं शांत हो जाते हैं, तथा समस्त कार्य अपने आप शांत हो जाते हैं ॥६०॥ जो बुद्धिमान् श्रद्धा धारणकर इस मन्त्रका ध्यान करता है, चितवन करता है, वा जप करता है
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