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० प्र० ॥१२॥
लोकजालम्य हानये ॥४३॥ महाप्रभाच दीरताना परमज्ञानसाधिका । महासौन्यकरा शान्ता ध्यातव्या शान्तिद सदा ॥४४॥ अहंदरूपमयी विद्यां चतुवर्णात्मिकां शुभाम् । अरिहंतत्त्वसिद्धयर्थं ध्यायेच्च शुद्धभावतः 11४५. अल्पाक्षरापि माश्चर्यकारिका चाथ सिद्धिदा । योगिनाथैः सदा ध्येया ध्यातव्या शिवबेतवे ।।४ा प्रत्यक्षफलदा सर्वकल्याणकारिका शुभा। शीनं ददानि भयानां सर्वागीयफल मदा ॥४ी सिद्धरूपी महाविद्या युग्मवर्णात्मिको शुभाम् । स्वस्वरूपोपलम्ध्यर्थं न्यायश मिथरचनमः ॥४८ अनाहन महामंत्रं ध्यानमिद्धिकरं शुभम् । चिन्तयेत् स्थिरभावेन संस्थाप्य नाभिमण्डत
४ा मंत्रेषु मुख्यमंत्रं तददिसम्रद्धिदम् । नानाश्चर्यकरं तद्धि प्रत्यक्षफलदायकम् ॥५०॥ ध्यानेन स्मरणेनाव जपन तदात्यलम । मन रथं च जीवानामभीष्टं दुर्लभं ननु ॥५१|| प्रत्यक्षफलदं शुद्ध जगत्कल्याणकारकम् । भायोंसे इस मंत्रका ध्यान करना चाहिये ।।४३।। यह मंत्ररूप विद्या भी महाप्रभावशाली है, दीप्यमान है, परमज्ञानको सिद्ध करनेवाली है, महासुख उत्पन्न करनेवाली है, शांत है और शांति देनेवाली है। इसलिये | योगियों को इसका भी सदा ध्यान करते रहना चाहिये ॥४४॥ "अरहंत" इन चार अक्षरोंसे उत्पन्न हुई मंत्ररूप | महाविद्या अरहतस्वरूप है और शुभ है, इसलिये अरहंत पदको सिद्ध करने के लिये शुद्ध भावोंसे इस मंत्रका | ध्यान करना चाहिये ।।४५] यह मंत्ररूप महाविद्या अल्पाक्षररूप होकर भी महाआश्चर्य उत्पन्न करनेवाली है, सिद्धियों को देनेवाली है और महायोगीलोग सदा इसका ध्यान करते रहते हैं, इसलिये मोक्षकी प्राप्तिके लिये | इसका ध्यान करना चाहिये ॥४६॥ यह विद्या प्रत्यक्ष फल देनेवाली है, समस्त कल्याणों को करनेवाली है, शुभ है और भव्य जीवोंको शीघ्र ही समस्त अभीष्ट फलोंको देनेवाली है ॥४७॥ इसी प्रकार "सिद्ध" इन 5 दो अक्षरोंसे उत्पन्न हुई मंत्ररूप महाविद्या सिद्धरूप है और शुभ है, इसलिये अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपकी प्राप्तिके लिये स्थिर चित्तसे इसका ध्यान करना चाहिये ॥४८॥ इसी प्रकार अनाहत महामन्त्र भी ध्यानकी | सिद्धि करनेवाला है और शुभ है, इसलिये इसको नाभिमण्डलमें स्थापनकर स्थिर परिणामोंसे चितवन
करना चाहिये ॥४९|| यह अनाहत महामंत्र सब मंत्रोंमें मुख्य है; ऋद्भि, वृद्धि और समृद्धियोंको देनेवाला है, | अनेक आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला है और प्रत्यक्ष फल देनेवाला है ॥५०॥ इस अनाहत मंत्रके ध्यान करनेसे | स्मरण करनेसे वा जप करनेसे जीवोंके दुर्लभ अभीष्ट मनोरथ बहुत शीघ्र सिद्ध हो जाते हैं ॥५१॥ ही यह
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