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सु० प्र० ॥ १५३ ॥
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मोहनिवारकम् ॥७७॥ कालव्याप्रमुखान्मां हि रक्षकों जिन एव सः । अन्यः कोऽपि समर्थो न दीनं वालं हि संसृतः ॥७८॥ कालव्याघ्रात्कथं रक्षा केनोपायेन मे भवेत् । इतीह स्वात्मरक्षार्थं तदपायस्य चिन्तनम् ॥ ७६ ॥ श्रन्यचिन्तानिरोधने चैकाग्रेण विचारणम् । अपायविचयं ध्यानं कालविभ्वंसकं मतम् ||८०|| सर्व जीवाः कथं शीघ्रं भवेयुः सुखिनो भृशम् । संसारोद्भवं दुःखं तेषां शाम्यति वा कथम् ॥८१॥ निध्याय चैवं मनसि उपायस्य चिन्तनम् । सर्वजीत्रसुखार्थं हि विन्तैका प्रनिरोधः ||२|| तदपायाभिधं ध्यानं भव दुःख विनाशकम् । स्वर्गमोक्षप्रदं चैतद्धस्वात्मविचिन्तनम् ||८|| भव्यानां हि परा शुद्धिः क्षोभक्षादविवर्जिता । भविष्यति कदा केनोपायेन शिवसाधिका ||४|| चिन्तयेतदुपायं हि योगी ध्याने निरन्तरम् । तदुपायाभिधं ध्यानं सदुपाये नियोजकम् ||८|| चिन्तनोंका निरोधकर एकाग्र मनसे बार बार चितवन करना मोहको निवारण करनेवाला अपायवित्रय नामका धर्मध्यान है ||७४-७७ || इस कालरूपी बाघके मुखसे रक्षा करनेवाले भगवान जिनेन्द्रदेव ही हैं। इस संसार में परिभ्रमण करते हुए इस दीन बालकको कालसे रक्षा करनेवाला अन्य कोई नहीं हैं । इस कालरूपी बाघसे मेरी रक्षा किन किन उपायोंसे हो सकती हैं ? इसप्रकार अपनी आत्मरक्षा के लिये काल (जन्म-मरण ) के नाशका एकाग्र मनसे अन्य सब चिन्तत्रनोंको रोककर बार बार चिन्तवन करना जन्म-मरणरूप कालको नाश करनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान है || ७८-८० ।। ये समस्त संसारी जीव कब सुखी होंगे ? संसारसे उत्पन्न हुए इनके दुःख किसप्रकार शांत होंगे ? इसप्रकार मनमें धारणकर समस्त जीवोंका सुख चाहने के लिये एकाग्रमनसे संसार के दुःखोंके नाशका बार बार चिन्तवन करना संसारके दुखोंको नाश करनेवाला, स्वर्गमोक्ष देनेवाला और आत्मा शुद्ध स्वरूपको चिन्तवन करानेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान है |८१-८३॥ समस्त दुःख और क्षोभसे रहित तथा मोक्षको देनेवाली इन भव्य जीवोंके आत्माकी शुद्धि किम उपासे होगी ? इसप्रकार जो योगी अपने ध्यानमें आत्माकी शुद्धिके उपायको निरंतर चिन्तवन करता रहता है, उसको श्रेष्ठ उपायमें नियुक्त करनेवाला अपायविचय नामका धर्मध्यान कहते हैं ||८४-८५ ॥ मोक्षमार्गका उपाय एक यह जैनधर्म ही है, पहले जो तीर्थकर आदि मोक्षमें गये हैं, वे इसी जैनधर्मले गये हैं तथा आगे
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