________________
भा
॥१४॥
पञ्चकल्याणं तत्रैव चिन्तयेत्सुधीः ॥४५|| अईतांमुगुणवतघ्यायध्यायन विचिन्तयेन् । कृत्वाचमानसाध्यक्ष जिनबिम्बेऽईतां गुणम ॥४६॥ जिनविम्व समालम्ब्य मनोध्यक्षेण चिन्तयेत् । भावरूपान्वितं देवमहम्तं हि जिनेश्वरम् ।।४७॥ कृत्वा प मानसाध्य जिनविम्ब मनोहरम् । सत्तानिहार्यसंयुक्त यक्षोयज्ञादिवदितम् ।।४। त्यत्तवा विकल्पसंकल्पं भक्त्या तन्मयतां बजेन् । ध्यानं कृत्वा जिनेन्द्रस्य स्वात्मानं भावयेत्सुधीः ॥४६॥ जिनाकृति समालंव्य मनुतेऽईद्गुणार्णवम् । जिनम्पं निजं ध्यायेत्तत्रैव च पुनः पुनः । ५०|| नसामे दृष्टिमारोप्य प्रशान्तबदन: सुधी। जातरूपधरो ध्याता प्रतिपद्य जिनाकृतिम ।।५।। शनैश्शनैर्निजे चित्ते स्वात्मानं भावयेजिनम् । अहं जिनो जिनश्चाई स्वात्मैव मे जिनो मतः ॥५२॥ तस्मा.
शरारAAISE
कारनंत्राले उन भगवान्का ध्यान करना चाहिये ॥४४॥ बुद्धिमान ध्याताको उसी प्रतिबिंधमें अरहन भगवान्के गुणोंको धारणकर चितवन करना चाहिये, अथवा उसी प्रतिबिंब में भगवान् अरहतदेवके पांचों कल्याणकोंका चितवन करना चाहिये ||३५|| अथवा भगवान् जिनेन्द्रदेवके प्रतिविषमें अरइतके गुणोंको मनसे प्रत्यक्षकर उनके गुणममूहोंका चितवन करते हुए उनका ध्यान करना चाहिये ॥४६॥ भगवान् अरईतदेवके प्रतियिका आलम्बन लेकर अपने परिणामोंमें आये हुए भगवान् अरहंतदेवको मनसे प्रत्यक्षकर उनका
बन करना चाहिय ॥४७॥ बद्धिमान ध्याताको अपने समस्त संकल्प-विकल्प छोड़कर श्रेष्ठ प्रातिहार्योंसे | सुशोमित यक्ष-यक्षियों के द्वारा सदा बन्दनीय-ऐसे भगवान् अरहंतदेवके मनोहर प्रतिबिंबको मनसे प्रत्यक्ष देखना चाहिये और फिर भक्तिपूर्वक तन्मय होकर भगवान् जिनेन्द्रदेवका ध्यानकर अपने आत्माका चितवन करना चाहिये ॥४८-४९॥ भगवान् जिमेन्द्रदेवके प्रतिबिंधका आलम्बन लेकर भगवान् जिनेन्द्रदेवके गुणसमुद्रका ध्यान करना चाहिये और अपने आत्माको भगवान् जिनेन्द्रदेवका रूप समझकर बारबार उनका ध्यान करना चाहिये ॥५०॥ बुद्धिमान ध्याताको अपना मुख शांत रखना चाहिये, अपनी दृष्टि नासिकाके अग्रभागपर रखनी चाहिये और भगवान् जिनेन्द्रदेवके समान दिगम्बर अवस्था धारणकर धीरे धीरे अपने चिसमें जिनेन्द्रमय अपने आत्माका चितवन करना चाहिये। मैं जिन हूँ, जिन ही मैं हूँ, मेरा आत्मा ही जिन है, इसलिये भक्तिपूर्वक 'जिन, जिन, जिन' इस प्रकार भावरूप 'जिन'का स्मरण करना चाहिये। तथा अपने