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| जिनं जिनं भक्त्या भावरूपं स्मरेन्जिनम् । तन्मयतां समासाद्य चाईन्तं तत्र चिन्तयेत् ॥५३॥ अनन्यशरणो भूत्वा भवसन्तानहानये । एकाग्रेण च तद्धिम्यं ध्यायन्सुस्थिरचेतसा || तस्य ध्यानेन शोधं हि जायते भावशुद्धता। नियमेन सुभब्यानामई द्र.पप्रकाशिका ॥५५॥ अभव्यानामपि श्रेष्ठ महापुण्यं यशस्करम् । जायते सर्वजन्तूनां महाश्चर्यकरं परम् ।।५६।। विपत्तिश्च महासाध्या देवी नश्यति निश्चयात् । स्वर्गापवर्गसिद्धस्तु स्वयमायाति भावतः ॥५॥ भाषयेत्सततं योगी जिनरूप निजात्मनि । त्यक्त्वा सर्वविकल्पं वा जिनसिम्बं भजेत्सुधीः ।।१८।। चतुर्विशतितीर्थानां जिनकेलिना तथा । सिद्धानां प्रतिविम्बानि ध्यातव्यानि मुमुक्षुणा ||५|| बिम्बानि भावरूपाणि सूयु पाध्यायलिगिनाम् । तद्गुणान् तत्र संध्यायेत् पश्चानां परमेष्ठिनाम् ॥॥ अकृत्रिमरिण विम्बानि जिनेन्द्र जितात्मनाम् । लोक सन्तोह वा तानि ध्यायेत स्वारम
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आत्माको जिनेन्द्रमय बनाकर अपने ही आत्मामें भगवान् अरहंतदेवका ध्यान करना चाहिये ॥५१-५३|| ध्यान करनेवालेको अपनी संसार परंपराका नाश करनेके लिये भगनान् भारतदेवको दी धारा मानना चाहिये और निश्चल चित्तसे वा एका मनसे भगवान अरहंतदेवके प्रतिबिका ध्यान करना चाहिये ॥५४॥
ध्यानके प्रभावसे भव्य जीवोंको भगवान् अरहंतदेवके रूपको प्रकाशित करनेवाले अत्यन्त निर्मल भाव अवश्य sil हो जाते हैं तथा अभव्य जीवोंको भी सब जीवोंको आश्चर्य प्रगट करनेवाला और यशको बड़ानेवाला महामेष्ठ
पुण्य प्रगट होता है। इस ध्वानसे महाअसाध्य दैवी विपत्तियां भी अवश्य नष्ट हो जाती हैं और भावपूर्वक ध्यान करनेसे स्वर्ग-मोक्षकी सिद्धि अपने आप समीप आ जाती है ॥५५-५७॥ बुद्धिमान योगियोंको अपने आत्मामें भगवान् जिनेन्द्रदेवके रूपका सदा चिन्तवन करते रहना चाहिये और समस्त विकल्पोको छोड़कर जिनपिंबका ध्यान करना चाहिये ॥५८|| मोक्षकी इच्छा करनेवाले योगीको चौबीसों तीर्थंकरोंकी प्रतिमाओंका, | | जिन केवलीकी प्रतिमाओंका तथा सिद्धोंकी प्रतिमाओंका सदा ध्यान करते रहना चाहिये ॥५९॥ इसीप्रकार |
आचार्य, उपाध्याय, साधुओंके भावरूप प्रतिदियोंकी कल्पनाकर उनमें उनके गुणोंका चितवन करना चाहिये || तथा इसीप्रकार पांचों परमेष्ठियोंके गुणोंका चिन्तवन करना चाहिये ॥६०॥ अपने आत्माको जीतनेवाले | भगवान् जिनेन्द्रदेवकी अकृत्रिम प्रतिमाएं इस लोकमें जहां जहां विराजमान हैं, उन सबका अपने शुद्ध