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सिद्धये ॥६॥ परं समयसारस्य मूर्ति कृत्वा सुभावतः । संस्थाप्य हृदये तो ये प्रारूप विचिन्तयेत् ॥६२॥ कायोत्सर्गेम संस्थाय कायोत्सर्गमयी कृतिम् । मत्वा नि:संगमरमानमहन्त चिन्तयेजिनम् ॥शा ध्यानकाले सदैवात्र कायोत्सर्ग जिनाकृतिम् । श्रेष्ठा सुध्यानगम्या या चाहंद्र पप्रकाशिका ॥६४।। पूजयेद्राषयेद्भक्त्या स्मरेप चिन्तयेबपेन् । ध्यायेनमे | बा स्तूयात् कायोत्सर्गजिनाकृतिम् ।।६।। अनारतं ततो ध्यायेत संस्थाप्य हदि मन्दिरे । जिनबिम्ब महामन्या श्रद्धाभरे वा ॥६॥ इत्यभ्यासबलेनात्र जिनबिम्बस्य चित्तनम् । स्थिरं कृत्या मनस्तेन शनैरवन्मयतां व्रजेत ॥६॥ अन्तरंटया निजं चित्तं संलीय च निजात्मनि । गूढ़ संस्थाप्य चास्मानं ध्यायेत्तव जिनाऋतिम् ।।६। येन येन सुभायेन चान्त
या निमील्य च । स्त्रात्मानं स्वात्मनि तेन सद्र पस्थं जिनं भजेत् ॥६॥ परमात्मा स एवाई सोऽहंसोऽहं प्रपद्य के
आत्माकी सिद्धि के लिये ध्यान करना चाहिये ।।६१॥ अपने निर्मल परिणामोंसे समयसाररूप शुद्ध आत्माकी | भूर्ति बनाकर और उसको अपने हृदयमें स्थापनकर उस ब्रह्म-स्वरूप मूर्तिका ध्यान करना चाहिये ॥१२॥ | कायोत्सर्गसे खड़े होकर अपने आत्माफी मुर्तिको कायोत्सर्गरूप कल्पना करनी चाहिये और अपने आत्मामें समस्त परिग्रहसे रहित अरहंतकी कल्पनाकर अपने आत्माको अरइतरूप चितवन करना चाहिये ॥६३|| ध्यानके समयमें भगवान् अरहंतदेवके रूपको प्रकाशित करनेवाली कायोत्सर्ग प्रतिमा श्रेष्ठ और ध्यानके योग्य मानी गई है। इसलिये कायोत्सर्ग जिन-प्रतिमाकी भक्तिपूर्वक सदा पूजा करनी चाहिये, भावना करनी चाहिये, उसका स्मरण करना चाहिये, जप करना चाहिये, चितवन करना चाहिये, उसको नमस्कार करना | चाहिये और उसकी स्तुति करनी चाहिये ॥६४-६५|| मगवान् जिनेन्द्रदेवकी प्रतिमाको अपने हृदयमन्दिरमें स्थापनकर अत्यन्त भक्तिसे तथा दृढ़ श्रद्धापूर्वक उसका निरंतर ध्यान करना चाहिये ॥६६॥ इसप्रकार ध्यानका अभ्यासकर और मनको अत्यन्त स्थिरकर जिनप्रतिमाका चिन्तवन करना चाहिये और | फिर चितवन करते हुए तन्मय हो जाना चाहिये ॥६७॥ अपने चित्तको अंतष्टिसे अपने आस्मामें लीन कर | लेना चाहिये और जिनेन्द्रदेवकी आकृतिके समान अपने आत्माको गृह स्थापनकर उसका चिन्तवन करना all
चाहिये ॥६८॥ यह आत्मा जिन २ परिणामों से अपने आत्माको अपने आत्मामें अंतर्दृष्टिसे लीन कर लेता Fel है, उन्हीं परिणामोंसे वह आत्मरूप भगवान जिनेन्द्रदेवका ध्यान करता है ।।६९॥ "जो परमात्मा है वही मैं हूँ,