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मन्त्र जपेत्सदा ।।७ अंध: कुष्ठी गलद्रको शुचिर्मलमूत्रतः । तथापि च जपेदेनं मंत्रराजं सुखाकरम् । ७६।। महाप्रभावको । सु०प्र०
मंत्रो महाशक्तिप्रदायकः । महामङ्गलभूतोऽसौ महासौख्यकरो मतः ।।८०|सर्वावस्थानु यो भक्तच्या जपेन्नित्यं ज्ञणे क्षणे । ॥ १८ ॥ निर्विघ्नं तस्य कार्याणि नित्यं सिद्धयन्त्यसंशयम् ।।दशा तस्मात्सर्वप्रयत्नन कार्यधारभके शुभा जपच ओं नमः सिद्धेभ्य इति
मंत्रराजकम् ।।जिनमित्यक्षरं युग्म जपेन्नित्यं दिवानिशम् । सर्वत्र सर्वकार्येषु भावभक्तया सुखाकरम् शाचिन्तयति जिनं भक्त्या स्मरति नौति वार्चति । जपनि ध्यायति भव्यो यः सवै पुरुषोत्तमः | त्रिलोकेऽस्मिन स चैको हि ध्येयोऽत्र
जिनः सताम् | अन्यमंत्रं सदा त्यक्वा ब्वायता स निनोऽनिशम् ॥८५ तावदेव कुमंत्रेषु जीवो भ्रमति मोहत्तः । यावन्न जिनदेवांऽसौ द्रष्टो भक्तिभरण वा ।।६।। तावदेव कुयोगेषु नानवः कुरुते स्थितिम् । यावन्न जिनदेवोऽसौ दृष्टः प्रशान्तयोग
चाहे रोगी हो चाहे रंक हो, चाहे शुभ हो, चाहे अशुभ हो, चाहे दीन हो, चाहे हीन हो और चाहे लँगा Fi हो, सबको इस मन्त्रका जप सदा करते रहना चाहिये ।।७८॥ वाहे अंधा हो, चाहे कोड़ी हो, चाहे उसके शरीरसे
मधिर बह रहा हो, चाहे मल-मूत्रसे अपवित्र हो, तो भी उसको सुख देनेवाले इस मन्त्रराजका जप अवश्य करना चाहिये ।।७९।। यह मंत्र महाप्रभाव उत्पन्न करनेवाला है, महाशक्तिको देनेवाला है, महामङ्गलभूत है
और महासुख उत्पन्न करनेवाला है। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक समस्त अवस्थाओंमें प्रतिक्षण सदा इसका जप करता है, उसके समस्त कार्य निर्विघ्नपूर्वक अवश्य ही सिद्ध हो जाते हैं ॥८०-८१।। इसलिये “ॐ नमः सिद्धेभ्यः" इस मंत्रराजको सब तरहके प्रयत्न करके प्रत्येक कार्यके प्रारंभमें वा शुभ कार्योंमें जपना चाहिये ॥२॥ "जिन" यह दो अक्षरों का मंत्र भी सुख देनेवाला है, इसलिये सब जगह सब कार्योंमें भक्तिपूर्वक रात-दिन इसका जप करना चाहिये ॥८३।। मो भव्य पुरुष भगवान् जिनेन्द्रदेवकी पूजा करता है, भक्ति
पूर्वक उनका स्मरण करता है, उनको नमस्कार करता है, उनका चितवन करता है, जप करता है और Hध्यान करता है, उसको इस संमारमें पुरुषोत्तम समझना चाहिये ॥८४|| एक भगवान् जिनेन्द्रदेव ही * तीनों लोकोंमें सज्जनोंके द्वारा ध्यान करने योग्य हैं, इसलिये अन्य सब मंत्रोंको छोड़कर 'जिन जिन' इसी
मंत्रका जप करना चाहिये ||८५|| यह जीव मोहनीय कर्मके उदयसे तभीतक कुमंत्रोंमें परिभ्रमण करता है, जब तक कि भक्तिपूर्वक भगवान् जिनेन्द्रदेवके दर्शन नहीं होते ॥८६॥ यह मनुष्य कुयोगोंमें तभीतक ठहर सकता
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