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सु० प्र०
॥२५॥
न वा मया ।।१२।। स्वात्मानं नैव पश्यामि मोहनिद्रावशेन वातामुद्भिद्य सुबोधेन स्वं पश्मामि गतनमम् शा रेयाव.
मोहनिद्रास्ति तावदात्मा प्रपश्यति । देहाकारं स्वकं नानारूपधरं मनोहरम् ॥५४|| गतनिद्रो यदात्मन् स्वं सुरोधेन 4) भविष्यसि । स्वं पश्यसि तदा शीघ्रममूर्तमजरामरम् ।।५५।। पश्यति स्वप्नवत्त वमोहनिद्रां गतो यदि । शरीरमात्मरूपोह
विनिद्र पश्यसि स्वकम् ॥४६॥ स्वप्ने राजा भवेद्रको रको वात्र नृपायते । स्वप्ने नष्टे न वा राजा न रहो दश्यते कचित ॥५७।। जाते मृत शरीरेऽस्मिन् वा स्वप्न सदृशे भवे । अहं जातो मृतोहं वा मन्यते हेति विभ्रमात् ॥८॥ अमुहं निराकारी रूपातीतोस्यहं खलु । यत्सर्व दृश्यते द्वन्द्व वेभ्यो मुक्तोम्यहं ननु IMLIL अक्षद्वारेण पश्यामि स्पर्शादिभ्यः सुखासुखम् । तन्नुधा नाज्ञरूपोहमक्षातीतोस्म्यहं खतु ||६०|| श्रवणं भक्षणं गानमित्याचा भुवियाः क्रियाः। मुझे मिथ्याज्ञान हो रहा है । इसालिये आजतक मुझे तत्वोंका यथार्थ ज्ञान नहीं हुआ ॥५२॥ मोहरूपी निद्राके वशीभूत होनेके कारण मैं अपने आत्माको नहीं देख रहा हूँ। समग्यज्ञानके द्वारा उस नींदको छोड़ार और भ्रमको दूर कर अब मैं उस आत्माको देख रहा हूँ ॥५३॥ हे आत्मन् ! जबतक तू मोहरूपी नींदमें सोया हुआ है तब तक तू अपने खरूपको शरीरके आकार और अनेक रूपोंको धारण करनेवाला मनोहर देखता है
आर जर मोहरूपी निद्रा हट जाती है और सम्यग्ज्ञान प्रगट हो जाता है तब तू अपने आन्माको अमूर्त, अजर il ओर अमर देखता है ।।५४-५५॥ जय यह जीव मोहरूपी नीदमें सो जाता है तब स्वपके समान शरीरको 6. ही आत्मा समझने लगता है। तथा जब वह मोदरूपी नींद हट जाती है तब वह आत्माके यथार्थ स्वरूपको। | देखने लगता है ॥५६।। जिस प्रकार स्वप्नमें गजा रंक हो जाता है और रंक राजा हो जाता है परंतु जब
खान नष्ट हो जाता है तब न राजा दिखाई देता है और न रंक दिखाई देता है ॥५७|| उसी प्रकार म्वप्नके. समान इम संसारमें शरीरके जन्म-मरण होनेपर 'मेरा जन्म-मग्ण दुआ' इस प्रकार यह आत्मा अपने अज्ञानसे | मान लेता है ।।५८॥ मैं अमूर्त हूँ , निराकार हूँ आर रूपरहित हूँ । संसारमें यह जो कुछ पुत्र मित्रादिकका i| उपद्रव दिखाई देता है उमसे में सर्वथा भिन्न हूँ ।।५९।। मैं इंद्रियों के द्वारा स्पर्शादिक से सुखदुःखका अनुभव
करता हूं परंतु वह सब व्यर्थ है क्योंकि मैं इन्द्रियरूप नहीं हूँ, मैं इन्द्रियोंसे सर्वथा रहित हूँ ॥६॥ सुनना,