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सु० प्र०
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दृश्यन्ते सर्वतस्ताभ्यः मुक्तोस्मि ननु सर्वथा ॥ ६१ ॥ स्वात्मनैवात्मरूपोहं सदा स्वात्मनि मे स्थितिः । चात्मनो मेऽथ भिनास्ते शरीराधा जडा हमे ||१२|| न मे पुत्रा न मे दारा न देहो नैव वस्तु मे । स्वप्नवदनुभूयन्ते भ्रमनाशे सुबोधतः ||६३ || रम्यं किंचिन मे भाति देहादिपरवस्तुनि । सुखं तत्र न पश्यामि स्वं पश्यन स्वात्मना स्वयम् ॥६४|| रूपं परित्यज्य पश्यात्मन एवं स्वकं सदा । स्वसंवेदन बोधेनामूर्तीसीति प्रभास से ||३५|| अन्तट्या निजात्मानं वरिष्ट्या तनुं ननु । पश्यात्मन शुद्धबोधेन भेदं कृत्वा पृथक् पृथक् ||१६|| संदेह देहिनोर्भेदमन्स या प्रपद्य च । चात्मनिगूढतत्त्वं तद्गृहाण सुखलिप्सया ||३७|| अन्तर्दृष्टिं समाज्ञम्ब्य सद्बोधेन सुदुर्लभम् । तं शरीरात्मनोमेदं कुर्वात्मन् त्वं सुखेच्या ||६|| भेदज्ञानं यदाप्नोति शरीरादात्मनोर्यदि । तदा त्वं लभते शीघ्रमात्मन् मोक्षपर्थ सुखम् ||६|| अन्तष्ट्या निजात्मानमाराधय स्वतः स्वयम् । आत्मन् पश्यसि शीघ्रं त्वं शिवसौख्यमकण्टकम् ||७०|| खाना, गाना आदि संसारमें जो जो क्रियाएं दीखती हैं उन सबसे में सर्वथा रहित हूँ || ६१ || मैं अपने आत्माके द्वारा ही आत्मरूप हूँ और आत्मामें ही मेरी सदा स्थिति रहती है । ये शरीगदिक जड पदार्थ सब मेरे आत्मा से भिन्न हैं ||६२ || न पुत्र मेरे हैं, न यह खी मेरी हैं, न यह शरीर मेरा हैं और न यह पर पदार्थ मेरे हैं । जब जाता है और आत्मज्ञान प्रगट हो जाता है तब ये सब मुझे स्वप्न के समान दिखाई देते
मेरा अज्ञान दूर हैं ॥ ६३ ॥ | जब मैं अपने आत्मा के द्वारा अपने आत्माको देखता हूँ तब इन शरीरादिक पर पदार्थों में न तो मुझे कुछ मनोहरता दिखाई देती हैं और न उनमें कुछ सुख ही दिखाई देता है || ६४ || हे आत्मन् ! तू वाह्य रूपको छोड़ कर अपने स्वसंवेदन ज्ञानसे अपने आत्माको देख, उस समय तू अमूर्त ही प्रतिभासित होगा ।। ६५|| आत्मन् ! तू अपने शुद्ध ज्ञानसे अलग अलग मेद समझकर अन्तर्दृष्टि आत्माको देख और वा दृष्टिसे शरीरको देख ||६६|| शरीर और आत्मामें अन्तर्दृष्टिसे मेद समझकर सुखकी इच्छासे आत्मामें जो रत्नत्रयरूप गूढ तत्र है उसको ग्रहण कर || ६७ || सम्यग्ज्ञानके द्वारा अन्तर्दृष्टि के आधारसे अत्यन्त दुर्लभ ऐसे शरीर और आत्माके मेदको सुखकी इच्छा करता हुआ तू अच्छी तरह ग्रहण कर ॥ ६८ ॥ हे आत्मन् ! यदि तू. शरीर और आत्मा मे - विज्ञानको प्राप्त हो जायगा तो शुभ मोक्ष मार्गको भी शीघ्र ही प्राप्त हो जायगा || ६९|| हे आत्मन् ! तू अन्तर्दृष्टिसे अपनी आत्माका आराधन कर । यदि तू अपनी आत्माका आराधन करेगा तो शीघ्र ही कंटकसे
おおおおおお
भाव
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