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सु०प्र०
॥२७॥
अन्तदृष्टया भ्रमं त्यक्त्वा गृहीत्वा बोधमुत्समम् । त्वं सम्यक् पश्य रे आत्मनात्मानं शुद्धरूपकम् || सिद्धरूपं निजात्मान. माराधय निजात्मना । त्यस्वा सर्वप्रपञ्च हिचान्तदृष्टया सुमावतः ॥७२।। वायचिन्तां पृथककृत्य देहजातां पुनः पुनः । त्वमात्मन् भावय शीघ्र स्वात्मानं शुद्धबोधतः ।।७३। अस्त्यात्मन् ते वहिर्दुःखं कर्मसंयोगजं परम् । अन्तरं ते परं सौख्य. मात्मजं निर्मलं शुभम् ॥४॥ त्वं मूच्छितोसि रे आत्मन् मोहनिद्रातिसूर्छया । जागृहि चाधुनोतिष्ठ पश्यानन्दमयं स्वकम् ।।७५|| यावन्मूर्छास्ति से चित्ते तावत्वं परिभ्राम्यसि । जन्ममृत्युजराकोनों संसारे विषये वने ॥७६।। मूईयामन्यसे चित्ते बालो वृद्धोहमाभ्रमाम् । मूझानाशे तु वृद्धो न बालो नापि सुतत्त्वतः ||४ा जीर्णे कुटीरके वासाहेवो जीणों भवेन वा । नवे कुटीरके वासाद्देवो नैव नषो भवेत् ||८ तथा नवीनजीर्णाभ्यो देहाभ्यां जायते नवा । आत्मा जोणों | नवो वापि त्वं सद्बोधाद् भ्रमं त्यज ॥७॥ यो मोहमूर्च्छया सुप्तः स सुप्तो विषयादिषु । मोहमूछा निराकृत्य | रहित मोक्षसुखको प्राप्त हो जायगा ।।७।। हे आत्मन् ! अंतर्दृष्टि से तू भ्रमको छोड़कर और उत्तम ज्ञानको पाकर शुद्ध स्वरूप अपने आत्माको अच्छीतरह देख ॥७॥ हे आत्मन् ! तू अंतष्टिसे और अच्छे परिणामोंसे सब प्रपंचों को छोड़कर अपने आत्माके द्वारा सिद्धरूप अपने आत्माका आराधन कर ॥७२सा हे आत्मन् ! तू शरीरसे | उत्पन्न हुई चिन्ताको चार यार दूर कर और शुद्ध ज्ञानसे अपने आत्माको शीघ्र ही चितवन कर ॥७३॥ हे आत्मन् ! यद्यपि कर्मके निमित्तसे उत्पन्न हुआ दुःख तुझे बाहरसे दिखाई पड़ता है तथापि तेरे मीतर आत्मासे उत्पन्न हुआ निर्मल और शुभ सुख सदा विद्यमान रहता है ।।७४॥ हे आत्मन् ! तू मोहके विलासकी मृच्छासे मूञ्छित हो रहा है इसलिये अब तू उठ और जम, तथा आनन्दमय अपने आत्माको देख ॥७॥ हे आस्मन् ! जबतक तेरे हृदयमें मूी वा मोह है तबतक तू जन्म-मरण और नुडापेसे भरे हुए संसाररूपी विषय-वनमें ही परिभ्रमण करता रहेगा ॥७६॥ इस मू के कारणही तू अपने हृदयमें अपनेको बालक का पद मानता है, | परंतु जब मूर्छा नष्ट हो जाती है तब तू समझने लगता है कि न तू बालक है और न वास्तवमें वृद्ध है
॥७७॥ जिसप्रकार किसी पुराने मठमें रहनसे कोई देव पुराना नहीं हो जाता और नये मठमें रहनेसे कोई देव नया नहीं हो जाता, उसीप्रकार यह आत्माभी पुराने शरीरमें पुराना नहीं होता और नवीन शरीरमें नया । मीं होता। रे आत्मन् ! तू अपने सम्यग्ज्ञानसे अपने प्रमका त्याग कर ||७८-७९॥ जो अपने मोह और