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सु०प्र०
| स्वकृतकर्मणा किन्तु सुखं दुःखं समश्नुते ॥६४ा अत्यंतदुःखदे भीमे जन्ममृत्युसमाकुले । घोरापदां हि संस्थाने संसारेऽत्र च कः सुखी MMI देना पतनं मा निगदि चक्रवर्तिनाम् । अन्येषां का कथा तत्र विपुण्याना मलीममाम् |६|| संसारे यदि वा किचित्सुखलेशं निराकुलम् । अस्ति चेत्तहि तीर्थेशाः पूज्या मुञ्चन्ति तं कथम || अम्तं नास्तीह दुःखस्य संसारे भयदेऽशुभे । मोहात्सुखं विजानाति दुःस्वदे परवस्तुनि ||६॥ तस्मान्मोहं परित्यज्य दीक्षां धृत्वा निर. म्बराम् । सद्ध्यानं कुरु है धीमन् संसारो येन नश्यति ॥E&II कुरु कुरु कुरु शुद्ध ध्यानमात्मस्वरूपं हन हन हन : शी कर्मजाल प्रगाढम् । भज मज हि सुधर्म श्रीजिनेन्द्रः प्रणीतं नय नय शिवमार्ग मोक्षसौख्यं त्वयात्मन् ॥१०॥
॥ इति सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकारे जीवतत्त्ववर्णनो नाम प्रथमोऽधिकार ॥शा इस संसारमें कोई ऐसा जीव नहीं है जो किसीको सुख वा दुःख दे सके । यह जीव अपने किये हुए काँके । IJ निमित्तसे स्वयं मुख वा दुःखोंको प्राप्त होता रहता है ॥१४॥ यह संसार अत्यन्त दःख देनेवाला है. अत्यंत | का भयानक है, जन्ममरणसे भरा हुआ है और अनेक आपत्तियोंका स्थान है ऐसे इस संसारमें भला कौन सुखी |
हो सकता है ? ॥९५॥ जहाँपर देवोंका भी पतन होता है और चक्रवतियों को भी आपत्तियां आ जाती हैं | वहांपर मला पुण्यरहित मलिन आत्माओंकी क्या कथा फहनी चाहिये ॥९६|| यदि इस संसारमें निराकुल
रूप सुखकी एक मात्रा भी होती तो फिर पूज्य तीर्थङ्कर ही इसका त्याग क्यों करते ? ॥९७॥ अत्यन्त अशुभ | और भय उत्पन्न करनेवाले इस संसारमें दुःखका कहीं अन्त नहीं है । यह जीव मोहनीय कर्मके उदयसे है दुःख देनेवाले परपदाथामें सुख मान लेता है ।।९८॥ इसलिये हे बुद्धिमन् ! तू मोहको छोड़कर और जेने
श्वरी दीक्षा धारणकर श्रेष्ठ ध्यान कर, जिससे कि यह जन्ममरणरूप संसार नष्ट हो जाय ।।९९॥ हे आत्मन् ! तू आत्मास्वरूप शुद्ध ध्यानको सदा कर, सदा कर, सदा कर और अत्यन्त गाद कर्मोके जालको शीघ्र ही नाश कर, गश कर, नाश कर । तथा भगवान जिनेन्द्रदेवके कहे हुए सुधर्मको वा श्रेष्ठ धर्मको सेवन कर, सेवन कर और मोक्षके मार्गको तथा मोक्षके सुखको प्राम कर, प्राप्त कर ॥१००।।
इस प्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरप्रणीत सुधर्मध्यानप्रदीपाधिकारमें जीवतत्त्वको
वर्णन करनेवाला यह प्रथम अधिकार समाप्त हुआ।