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द्वितीयोधिकारः।
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ध्यार्यान्त योगिनो यं हि नमन्ति नृसुरासुराः । पूजयन्ति गणाधीशाः श्रीपमं नमाम्यहम् ॥१॥ एवं मूलीपि चात्मा स शुद्धकेवलबोधभाक् । श्रनादिकमद्धत्वादेहे दहेऽवसिष्ठति ॥२) देहस्थो देहरूपोऽसावशुद्धी मूर्तिमान्ननु | अदृश्योस्ति तथाप्येषः अतीन्द्रियः स्वबोधमाक् ॥शा देहत्तः सर्वथा भिन्न भिन्न चित्स्वरूपतः । रमत्रयाच भिन्नं न वा| स्मानं विद्धि तत्त्वतः ॥४॥ काष्ठादी द्दि यथा यहिः पयसि घा यथा घृतम् । ताम्रादौ वा जले विद्युत्तिष्ठति चावरोधतः॥शा
अयमात्मा तथा देहे तिष्ठति कर्मयोगतः । तथापि स्वम्यभावं न जहाति स कदापि वा ।।६। अव्यक्ता हि गुणास्तस्य मोहादि| कर्मयोगतः ! वैमानियन र व्या कमाना गतिः । द्रव्यतः शुद्धचिट्रपः लोकालोकप्रकाशकः । सर्वशक्ति
योगी लोग जिनका ध्यान करते हैं. सर असर और मनुष्य मन जिनको नमस्कार करते है और गणधरदेव जिनकी पजा करते हैं ऐसे भगवान अषमदेवको मैं नमस्कार करता हैं ॥२॥ ऊपर लिखे अनुसार यह | आत्मा यद्यपि युद्ध केवल ज्ञान से सुशोभित है तथापि अनादिकालमे कर्मबद्ध होनेके कारण यह आत्मा अनेक | शरीरोंमें निवास कर रहा है ॥२॥ यद्यपि यह संसारी आत्मा शरीरमें रहता है, शरीररूप है, अशुद्ध है,
मूर्तिमान हैं, तथापि वह अदृश्य है, अतींद्रिय है और आत्मज्ञानको धारण करनेवाला है ॥शवह आत्मा शरीरसे | सर्वथा भिन्न है और चैतन्यस्वरूपसे अभिन्न है तथा रत्नत्रयसे भी वह भिव नहीं हैं ऐसे आत्माको अपनी आत्मा |
समझो ॥४॥ जिस प्रकार लकड़ीमें अग्नि रहती है, दूध पी रहता है और रोकनेपर तावे वा जलमें बिजली रहती है उसी प्रकार वार्म के निमित्तसे यह आत्मा यद्यपि शरीर में रहता है तथापि वह अपने स्वभावको कमी नहीं छोड़ता है ॥५-६|| मोहनीय आदि कर्मके निमित्तसे उसके ज्ञानादिक गुण सब अव्यक्त हो जाते हैं
KAISEMINSAKSIY MARATHI
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