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मु.प्र.
मान
११५८ ॥
संसारो न चान्योऽस्तीह वा क्वचित् । कृत्स्नकर्मोदयाभावो मोझोऽस्ति नियमेन सः ॥२८ कर्मोदयानन्तास्ते जीवा नित्यनिगोतके। अनन्तकालतोऽयाप सहन्त वदना परान् ॥२६॥ तत्रकोच्छासमाने हि चाष्टादशप्रमाणकम् । कुजन्ममरणं नित्यं कुर्वन्ति कर्मयोगः॥३०॥
श्व कर्मादयाजीवो वधधादिकं भृशम् । ताउन मारणं चैव दुःखं वासहते परम् ॥३॥ छेदन भेदनं तो भर्सनं दहन तथा। कर्मोदयास्त जोवोऽयं लभते वेदनां पराम् ।।३।। बहुसागरपर्यतं दुःखं प्राप्नोति भीमकम् । न कोऽपि रक्षकतत्र प्रतीकारोऽपि नास्ति वै ॥३॥ हिंसस्तेयानृताब्रह्मसंगादिपापतो ननु । कर्मोदयादर्य तत्र सहते वेदनां पराम् ॥३४|| जीवानां वधबंधेन मायाचारण कर्मणा। दुर्नीतिनाऽसदाचारेणान्येन पापकर्मणा ||३|| | दुर्गतौ जायते जीवो तिर्यग्योनौ च संततम् । कर्मोदयाच तत्रापि परतन्त्रः सदा दुःखः ॥३६॥ अतिभोमेऽत्र संसारे कर्मणा
| होनेवाले अनेक दारुण दुःखों को प्राप्त हुआ करता है ॥२७॥ इस संसारमें जो कर्मों का उदय है, वही संसार Pा है, कोके उदयके सिवाय अन्य कोई संतार नहीं है। तथा समस्त कर्मोंके उदयका अभाव होना ही नियमसे | | मोक्ष है ॥२८। इन्हीं कमौके उदयसे अनंतानंत जीव अनंतानंत कालसे नित्य निगोदमें पड़े हुए हैं और | आजतक सबसे अधिक वेदनाको मह रहे हैं ॥२९॥ वे जीव कर्मों के उदयसे जितनी देरमें एक श्वास लिया | आता है, उतनी देरमें अहारह बार कुजन्म-मरण धारण करते रहते हैं, इसीप्रकार सदासे जन्म-मरण करते
आ रहे हैं ।।३०॥ कर्मोके उदयसे ही यह जीव नरकमें उत्पन्न होता है, वहां पर वध-बंधनके अनेक दुःख | सहन करता है तथा ताडनमारण आदिके महादुःखोंको सहन करता है। उसी नरकमें कर्मोंके उदयसे यह Dil जीव छेदन, मेदन. तीव्र भर्त्सन तथा दहन आदिकी तीव्र वेदनाओंको सहन करता रहता है। उन नरकोंमें | | यह जीव अनेक सागर पर्यंत भयानक दुःख सहन करता रहता है । उन दुःखोंसे बचानेवाला वहांपर कोई नहीं है और न उन दुःखोंका कोई प्रतीकार का उपाय है ॥३१-३३।। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहरूप पापकर्मोंके उदयसे यह जीव उन नरकोंमें तीव्र वेदनाओंको सहन करता रहता है ॥३४॥ जीवोंका वध, बंधन करनेसे, मायाचार करनेसे, कुटिल नीतिसे, असदाचारसे वा अन्य पाप कर्मोंसे यह जीव तिर्यच योनिकी अनेक दुर्गतियोंमें निरंतर उत्पन होता रहता है और उन कर्मोंके उदयसे वहां मी परतंत्र होता हुआ | सदा दुःखी रहता है ॥३५-३६|| कर्मोके उदयसे यह जीव अत्यंत भयानक इस संसारमें किन किन