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कर्मकदम्बकम् । प्राप्नोत्यात्मातिनैर्मल्यं शुद्ध काश्चनसन्निभम् | घातिकर्ममलातीतो भवत्यात्मा सुनिलः । तदाचिन्त्यप्रभावो डि लगती भवति वा साग ।।३॥ एवं वायभायेगा इत्वा घातिचतुष्टयम् । स योगी लभते शीघ्र तदनन्तचतुष्टयम् ॥३६।। स हि चाहत्पदं लब्ध्वा योगी केवलबोधभूत् । जायते त्रिजगत्पूज्यो लोकालोकप्रकाशकः ||३० जीवन्मुक्तः परात्मासौ परमात्मा महेश्वरः । सर्वदोषविनिर्मुक्तः शुद्धः स्फटिकसन्निभः ॥३८॥ निन्द्रः परमज्योतिज्योतीरूपो निरञ्जनः । चिदात्मा च चिदानन्दे वीतरागः शिवेश्वरः ॥३६॥ अनन्तसुखसम्पन्नः शान्तो दान्तो छतीन्द्रियः । देवदेवः स वेवाधिदेवरुण्यलोक्यवन्दितः ॥४०|| सोऽईन स भगवान् देवः सर्वज्ञ ईश्वरी विभुः । ब्रह्मा विष्णगुर्महादेवः शङ्करः सुगतः प्रभुः ॥४१॥ नारायणो महाबुद्धो दिव्यतेजाः प्रभास्वरः । महाविभूतिसम्पन्नछत्रप्रयविराजितः ॥४॥
-- ... . - - - - - - - - वह योगी अपने समस्त घातिया कोंको नष्ट कर देता है और शुद्ध सुवर्णके ममान अपने आस्माको अत्यंत निर्मल बना लेता है ॥३४॥ घातिया कर्मरूपी मलसे रहित हुआ वह आत्मा अन्यन्त निर्मल हो जाता है | और उस समय उस आत्माका अचिंत्य प्रभाव प्रकट हो जाता है ।।३५॥ इस प्रकार एकत्व-वितर्क ध्यानके | | प्रभावसे वह योगी चारों घातिया कोंको नाश कर डालता है और अनंत चतुष्टयरूप महाविभूतिको शीघ्र | ही प्राप्त हो जाता है ॥३६।। उस समय अईन्त पदको पाकर वह योगी केवलज्ञानी हो जाता है तथा लोक- | अलोक प्रकाशित करनेवाला और तीनों लोकोंके द्वारा पूज्य हो जाता है ॥३७॥ उस समय वह योगी | | परमात्मा कहलाता है, उसकी आत्मा सर्वोत्कृष्ट होती है, वह जीवन्मुक्त कहलाता है, उसीको महेश्वर | कहते हैं, वह भूख-प्यास आदि समस्त दोषोंसे रहित होता है और स्फटिकके समान अत्यंत शुद्ध होता है ॥३८॥ उस समय उन परमात्माको निर्द्वन्द, परम ज्योतिःस्वरूप, ज्योतिर्मय, निरञ्जन, चिदात्मा, चिदानन्द, वीतराग और शिवेश्वर कहते हैं ॥३९।। वे अनन्त सुखी होते हैं, शांत, दांत, अतीन्द्रिय, देवदेव, देवाधिदेव
और तीनों लोकोंके द्वारा बंदनीय कहे जाते हैं ॥४०॥ वे अहन्त भगवान, देव, सर्वज्ञ ईश्वर, विभू, ब्रह्मा, | विष्णु, महादेव, शङ्कर, सुगत, प्रभु, नारायण और महाबुद्ध कहलाते हैं। उनका तेज दिव्य होता है, उनके | शरीरकी कांति देदीप्यमान होती है, वे महाविभूतिसे सुशोमित होते हैं, तीन छत्रसहित विराजमान होते हैं,