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सु०प्र०
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सुरासुरैः सदा पूज्यो योगीन्द्रश्च सुवन्दितः । तेन ध्यानेन योगी स जायते त्रिजगत्प्रभुः ।।।शा सूचनक्रियाप्रतिपाति ध्यान ध्यायति केषली । उपचारेण वा सूक्ष्ममचलं स्थात्मसंस्थितम् ॥४ा सर्वकर्मविनाशार्थ स्वात्मरूपोपलव्धये । मायुषोऽन्ते च स्थानान्ते भवान्ते तनुनाशकम् ॥४॥ निष्प्रकल्पं क्रियाहीनमयोगी ध्यायति ध्रुवम् । व्युपरतिक्रियाध्यानं तुर्य मोक्ष। प्रदं महत् ॥४६॥ स्वल्पसमयमात्रेण हत्या कर्मकदम्बकम् । तेन ध्यानेन योगीस शिवं प्राप्नोति निर्भयम् ॥णा रुस्नकर्मविहीनः स सिद्धः शुद्धो निरञ्जनः । जन्मातीतोऽप्यजो नित्यः पुनर्जन्मदिवजितः ॥४॥ अनादिनिधनः स्वात्मरूपी विकारवर्जितः। मनोजलरूपी सा पाहापाकोन : र ध्यानप्रभावेण जोवः संसारचक्रकम् । निःशेषकर्मचक्रं वा हत्वा याति शिवं पदम् ॥४०॥ ध्यानस्य महिमा चात्राचिस्या लोकोत्तरा मता। तां वक्तं मादशी बालः
सुर असुर सब उनकी पूजा करते हैं और योगीश्वर सदा उनकी वंदना किया करते हैं। इस प्रकार उस एकत्व वितर्क ध्यानसे वे योगी तीनों लोकोंके स्वामी हो जाते हैं ॥४१-४३॥ तदनंतर वे केवली भगवान अपने |
समस्त कर्मोंको नाश करनेके लिये और अपने शुद्ध आत्माकी प्राप्तिके लिये सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामके तीसरे । Ki शुक्ल ध्यानको धारण, करते हैं। वह ध्यान अत्यन्त सूक्ष्म है, निथल है और केवल अपने आत्मामें निश्चलरूप है। इसके बाद जब आयुका अन्त होता है, चौदहवें गुण स्थानका अन्त होता है।
और संसारका अन्त होता है; उस समय वे अयोगी भगवान् निष्प्रकप और क्रियारहित व्युपरस क्रिया- 15 निवृत्तिरूप मोक्ष देनेवाले सर्वोत्कृष्ट चौधे शुक्ल ध्यानको धारण करते हैं । वे महायोगी केवली भगवान् उस चौथे शुक्लध्यानके द्वारा थोड़े ही समयमें समस्त कर्माको नष्ट कर देते हैं और समस्त भोंसे रहित मोक्षको | प्राप्त हो जाते हैं ॥४४-४७॥ तदनन्तर वे परमात्मा समस्त कर्मोंसे रहित, सिद्ध, शुद्ध, निरञ्जन, जन्मरहित, अज, नित्य, पुनर्जन्मसे रहित, अनादि, अनिधन, स्वात्मरूप, विकारसे रहित, स्वतंत्र, अत्रल और समस्त जीवोंको आजाद करनेवाले हो जाते हैं ॥४८-४९। इस प्रकार ध्यानके प्रभावसे यह जीव संसारचक्रको और समस्त कर्मोंके समूहको नाशकर मोक्ष-पदको प्राप्त होता है ॥५०॥ इस संसारमें ध्यानकी महिमा सु०प्र०२७