________________
०प्र०
॥२०७।।
त्रसः ॥२१॥ शब्दाच्छवान्तरं याति यर्थावान्तरं पुनः । योगाद् योगान्तरं स हि संक्रामनि पुनः पुनः ॥२३|| शुक्लध्यानेन यस्य स्यानिर्मलात्मा विशुद्धिमाक । निष्क्रपायो महाशान्तः सुचारित्रमयात्मकः २७एकवध्यानमाधत्तं स धोरः क्षीणमोहकः । पूर्वझो यंगसम्पन्नस्तत्वज्ञाना प्रसन्नधीः ॥२८॥ एकेनैव सुयोगेन पृथक्त्वरहितेन बा । वितकंपदिन ध्यानं वीचारपरिवर्जितम् । तदेकत्ववितर्क स्याध्यानं चात्यन्तनिर्मलम् । योगिनां क्षीणमोहाना धीराणां निर्मलात्मनाम् ॥३० ।। द्रव्यं वा द्रव्यपर्याम्मेकयोगेन ध्यायति । स सूरूममेकनर्थ वा पायनि शुद्धभावतः ॥ ३१ ॥ तदेकस्ववितक स्याद् ध्यानकर्मविनाशकम् । स्त्रात्मनि स्वात्मनस्तत्र स्थितिः स्यादव जायजा ॥३२॥ स हि निष्कम्पमावेन स्वात्मानं ध्यायति स्कुटम् । तन्नयत्वं ममासाद्य रम स्वात्मनि ध्र वम् ॥३३॥ क्षमाद्विनी यते तेन यानि
और योगसे योगांतर संक्रमण करनेको वीचार कहते हैं ॥२६॥ इस प्रकारके पूधाव-वितर्कची वार नाम के पहले शुक्लध्यानसे जिसका आत्मा अत्यन्त निर्मल और विशुद्ध हो जाता है । कपायरहित, महाशांत और सम्यक् चारित्रमय हो जाता है । तथा जिसका मोहनीय कर्म सब नष्ट हो गया है, जो ग्यारह अंग चौदह पूर्वोका प्राता है, योगको धारण करनेवाला है, तोंका जाता है, और जिसका हृदय प्रसन्न है; ऐसा श्रेष्ठ मुनि एकत्व-वितर्क ध्यानको धारण करता है ॥२७-२८॥ जो ध्यान किसी एक ही योगसे होता है, जिसमें पृथक्त्वपना नहीं होता अर्थात जिसमें अर्थव्यञ्जन योगका परिवर्तन नहीं होता
और इसीलिये जो वीचाररहित कहलाता है और जो वितकं या थुतज्ञान महित हैं, एसे अत्यन्त निर्मल थ्यानको एकत्व-वितर्क ध्यान कहते हैं। यह ध्यान मोहनीय कर्मको सदा नष्ट करनेवाले धीर, वीऔर निर्मल आत्माको धारण करनेवाले योगियों को होता है ।।२९-३०!! इस ध्यानको करनेवाला योगी अपने निर्मल | परिणामोंसे किसी भी एक योगसे द्रव्य वा पर्यायरूप एक ही सक्षम पदार्थको चितवन करता है, उसी एकत्व-वितर्क ध्यान कहते हैं। यह ध्यान कमीको नाश करनेवाला है और अपने ही आत्मामें अपने ही आत्मा की निश्चल स्थिरतारूप है ॥३१-३२॥ वह ध्यान करनेवाला निष्कपरूप परिणामोंसे अपने आरमाका चितवन करता है, तथा आत्ममय होकर अपने ही आत्मामें निश्चलताके साथ लीन हो जाता है ।।३३॥ उसी समय
-
-