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वशादसौ ॥७५॥ धर्मोस्ति कायकाभावान्न गमनं ततो भवेत् । अनन्तसुखसम्पन्नो नित्यं तत्रैव तिष्ठसि ॥७६॥ सर्वकर्मप्राणाच कारणाभावतस्तथा । पुनर्जन्म न गृहाति कदापि दग्धमोजवत् ॥७७॥ कल्पकालशतेनापि नात्ययस्वस्वस्य च । न विकारो न लेपः स्यात्कर्मणां कापि सर्वदा ॥७८॥ यस्वरूपतः शुद्धो जन्ममृत्युविदूरगः । अक्षः सर्वथा नित्यो विगतिः स्यादतीन्द्रियः ॥७६॥ कूटस्थोपि व्ययोत्पायं स्वतः स्वस्मिन् करोति च । जलकल्लोलवतन स्वस्वरूपे हि संततम् ||८०|| लोकालोकविलोकशः सर्वमलापहः । निराबाधो निरौपम्यः शान्तः शुद्धच निष्कखः ॥८॥ शुद्धदर्शनसम्पन्नः शुद्धज्ञानविराजितः । शुद्धसम्पत्तयसंयुक्तः धन्यावाधसमन्वितः ॥८२॥ अनन्तवीर्यं सूक्ष्मस्वावगाहनगुणान्वितः । एतादृशो हि सिद्धात्मा सिद्धालये व तिष्ठति ॥ ६३॥ शुद्धाशुद्धप्रभेदेन द्विधा जीवा हि वर्णितमः । शुखा मुक्ता भवातीताः कर्मकलंकदूरगाः ॥ ८४॥ कर्मवद्धा अशुद्धास्ते संसारितो जिनैर्मताः । संसारिणो द्विधा या लोके अन्तकरता है ॥७५॥ लोकाका के आगे धर्मद्रव्यकर अभाव है इसलिये लोकाकाशसे आगे यह जीव गमन नहीं कर सकता । तथा अनंत सुखसहित सदा काल वहीं विराजमान रहता है १९७६ ॥ जिस प्रकार जले हुए बीजसे वृक्ष उत्पन्न नहीं हो सकता उसी प्रकार समस्त कर्मों के नाश होनेपर और इसी कारण अभाव होनेसे फिर यह जीव कभी भी दूसरा जन्म ग्रहण नहीं करता ||७७ || सेकड़ों कल्प काल बीत जानेपर भी फिर उस सुखका कमी नाश नहीं होता, न उस आत्मामें कोई रागादिक विकार होता है और न कमौका कभी संबंध होता है ॥७८॥| उस समय वह जीव स्वाभावसे ही शुद्ध, जन्म-मरणसे रहित, निल, सर्वधा free, चारो गतियोंसे रहित और अतीन्द्रिय हो जाता है ॥ ७९ ॥ यद्यपि उन समय वह कूटस्थ रहना है तथापि जलकी लहरोंके समान अपने ही आत्मामें अपने ही स्वरूप में अपने आप उत्पाद व्यय अवस्थाको धारण करता रहता है ||८०|| उस समय यह जीव लोक आलोकको जानेवाला, समस्त उपद्रव और मलोंसे रहित, बाधा रहित, उपमाओंसे रहित, शांत, शुद्ध, शरीररहित होजाता है। शुद्ध सम्यग्दर्शन शुद्ध ज्ञान और शुद्ध दर्शनसे सुशोभित होजाता है— अध्यावाध अनंत वीर्य, सूक्ष्मत्व और आवाहन गुणविशिष्ट होजाता है । इन प्रकारका वह सिद्धात्मा सदा सिद्धालय में ही विराजमान रहता है ।८१-८३ ॥ जीवोंके दो भेद हैं शुद्ध और अशुद्ध, जो जीव मुक्त हैं, संसारले रहित हैं, और कर्ममलसे रहित हैं ऐसे सिद्ध
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