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शिवसौख्यं हि महानन्दश्च जायते ॥ १५६ ॥ इह जगति च जीवः कर्मणां पाकतोऽत्र भ्रमवि विविधयोनौ जन्म मृत्युं करोति । अतिशयपरतन्त्रो दुःखमन्वेति नित्यं धरतु सुखनिवासं कर्मद्दान्यै सुधर्मम् ||१७||
इति सुधर्म ध्यानप्रदीपालंकारे विपाकविचयनिरूपणो नाम एकोनविंशोऽधिकारः ।
॥५६॥ इस संसार में यह जीव कर्मो के उदयसे अनेक योनियों में परिभ्रमण करता रहता है और सदा जन्म-मरण धारण करता रहता है । उन्हीं कर्मोंके उदयसे अत्यन्त परतंत्र हुआ यह जीव सदा दुःखों को मोगा करता है । इसलिये मन्य जीवोंको उन कर्मोंका नाश करनेके लिये समस्त सुखोंका स्थान ऐसा श्रेष्ठधर्म सदा धारण करते रहना चाहिये ॥५७॥
इसप्रकार सुनिराज श्रीसुधर्म सागरविरचित सुधर्म ध्यानप्रवीपालंकार में विपाकविचय नामके धर्मध्यानको निरूपण करनेवाला यह उन्नीसवां अधिकार समाप्त हुआ।
सु० १० ११
1976
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