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पु०प्र०
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चतुर्दशोधिकारः।
ध्यानेन दुर कर्म हत्वाऽऽन्तं येन केवशम् । विमलं तमहमीशानं नमामि भावभक्तितः॥१॥ तत्पशम्ताप्रशस्तन्तु ध्यानं हि द्विविधं मतम् । धर्मशुकले प्रशस्ते द्वे' प्रातरौद्रेऽप्रशस्तके ||२|| धर्मशुक्ले हि मोक्षाय प्रातरौद्रे भवाय च। प्रातरौद्र महानिंद्यमतिसन्तापदायकम् ॥३॥ विश्वक्लेशकरं नित्यं भयदं दुर्गतिप्रदम् । विश्वसौख्यकरं शान्तं निर्भयं शर्मकारकम् ॥४॥ संसारतारकं भेष्ठं धर्म शुक्लं च ज्ञायताम् । आरौद्र' परित्यक्त्वा धर्म शुक्लं च चिन्तय ||५|| तत्रातध्यानमाख्यातं चित्तव्याकुलकारकम् । नानोद्रेककरं नित्यं चाक्षविषयवद्धकम् ॥६॥ इष्टानिष्ट पदार्थानां संयोगज
जिन्होंने अपने दुर्धर कर्मोंको नाशकर केवल ज्ञान प्राप्त किया है और सबके स्वामी हैं। ऐसे भगवान् | विमलनाथको मैं भावभक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूं ॥१॥ वह ध्यान दो प्रकार है-एक प्रशस्त और दूसरा | अप्रशस्त । उनमें भी धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये दो प्रशस्त ध्यानके भेद हैं तथा आर्तध्यान और रौद्रध्यान | ये दो अप्रशस्त ध्यानके भेद हैं ॥२॥ धर्मध्यान और शुक्लथ्यान मोक्षके कारण हैं तथा आध्यान और
रौद्रध्यान संसारके कारण हैं । आर्तध्यान और रौद्रध्यान अत्यन्त निंय है, अत्यन्त संताप उत्पन्न करनेाले | | हैं, संसारभरको क्लेश उत्पन्न करनेवाले हैं, सदा भय उत्पन्न करनेवाले हैं और दुर्गतियों को देनेवाले हैं। इसीप्रकार धर्मध्यान और शुक्लध्यान संसारभरको सुख देनेवाले हैं, शांत हैं, भयरहित हैं, कल्याण करनेवाले हैं, संसारसे पार कर देनेवाले हैं और सर्व श्रेष्ठ हैं । इसलिये आर्तध्यान और रौद्रध्यानका त्यागकर धर्मध्यान और
शुक्लभ्यानका चिंतन करना चाहिये ॥३-५॥ उनमें भी आर्तध्यान चित्तको व्याकुल करनेवाला, अनेक | प्रकारके उपद्रवोंको उत्पन्न करनेवाला है और इन्द्रियों के विषययों को बढ़ानेवाला है ।।६॥ यह आतंभ्यान चार