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सु०० ११७॥
ARIRAHASHIRBERKAHANISE
येन शान्तिकरं साम्यं न लब्धं हि मुमुक्षुणा ॥५|| गृहं त्यक्त्वा प्रतं वृत्वा लात्वा दहा जिनेशिनाम् । यदि साम्य न लरुधं चेत्सर्वमेतन्निरर्थकम् ॥५४॥ पूजया निन्दया वापि यस्यारित समता हदि। स योगी सोऽस्ति सध्यानी हाता तत्त्वस्य सोऽत्र वा ॥५शा साम्यसोपानपंकिंवामारुह्य शुद्धभावतः । पुरा मोक्षगृह प्राप्तारतीर्थपाः विश्वभूतिशः ४६|| तस्मात्सर्वप्रयत्नेन स्थिरचित्तेन चात्मनि । साम्यामृतं परानन्दं गृहाण तोषकं शुभम् ॥१७॥ साम्यामृतसुपानेन यानन्दो जायते महान् । भवक्लेशगतस्तापो नश्यते प्राप्यते शिवः ||८| विषयजनितरागद्वेषभावं विमुच्य परमसुखनिधानं साम्बपीयूषपानम् । कुरु कुरु अतिशीघ्र दुर्लभं शुद्धभावात् भवति सहजसिद्धानन्दकन्दः सुधर्मः ॥ ५॥ ॥ इति सुधर्मध्यानपड़ीपालंकारे साम्यप्ररूपणो नाम त्रयोदशोऽधिकारः ॥
- .- .- - | शांति उत्पन्न करनेवाली समता प्राप्त न हो ॥५३॥ निम्ने धाका यागकातो धारण और जैनेश्वरी | दीक्षा धारणकर यदि समता प्राप्त नहीं की तो फिर समझना चाहिये कि उसके त्याग, व्रत और दीक्षा सब व्यर्थ हैं ॥५४॥ जिस मुनिके हृदय में पूजा वा निंदा-दोनोंसे समता पनी रहे, जो दोनोंमें समान | परिणाम रक्खे, उसीको योगी, श्रेष्ठ ध्यानी और तत्त्वोंको जाननेवाला समझना चाहिये ॥५५॥ पहले | समयमें समस्त विभूतियों को देनेवाले तीर्थकर लोग जो मोक्षमहलमें जाकर विराजमान हुए हैं, वे अपने शुद्ध परिणामोंसे समतारूपी सीड़ियों की पंक्तिपर चढ़कर ही प्राप्त हुए हैं ।।५६॥ इसलिये अपने चित्तको स्थिर करके सब तरहके प्रयत्नकर परम आनन्दमय शुभ और परम वृप्ति करनेवाले समतारूपी अमृतको ग्रहण कर ॥५७|| इस समतारूपी अमृतके पीनेसे महान् आनन्द उत्पन होता है, तथा संमारके क्लेशोंसे उत्पन्न हुआ संताप शीघ्र नष्ट हो जाता है और मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है ॥५८॥ हे आत्मन् ! तू विषयोंसे उत्पन्न | हुए राग-द्वेषको छोड़कर शुद्ध परिणामोंसे अत्यन्त दुर्लभ और परम सुखका निधान, ऐसे समतारूपी अमृतके पानको अत्यन्त शीघ्र कर । इसी समताके पानसे स्वाभाविक सिद्धस्वरूप आनन्दको देनेवाला श्रेष्ठ धर्म तुझे प्रास होगा ।।५९॥ इस प्रकार मुनिराज श्रीसुधर्मसागरविरचित सुधर्मध्यानप्रदीपालकारमें समताको वर्णन
करनेवाला यह तेरहवां अधिकार समाप्त हुआ।
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