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तत्साम्याग्लुगन्तव ॥४॥ सम्मृदिनाची वयेनाभिवर्तते । सदामरपदं लब्ध्वा शियो भवति चेतनः ॥ ४५ ॥ संसारदुःखतो मोसुमात्मानं त्वं यदीच्छसि । साम्यबोधं गृहाण त्वं स्वात्मनि शुद्ध भाषतः ॥ ४६ ॥ विरन्यात्मम् विरण्य त्वं हृषीक विषयादिषु । मुच मुच स्पृहां देहे भज साम्यामृतं सुधीः ॥४७॥ उन्मत्तमिव वा भाति चराचरमिदं जगत् । योगिनः पिबतः साम्यं सर्वाह्रादकरं परम् ||४|| स मे प्रियः स मे वैरी तावदेदेति कल्पना । यावन साम्यराजासौ निर्विकल्पो विराजते ॥४६॥ असिप्रहारतोषाद्धा पूजया मुनेः । यस्य विक्रियते नैव चित्त साभ्यं तदुच्यते ||२०|| साम्यतीर्थं समाराध्य योगी शीघ्रं भवाब्धितः सहसा तीर्थ स्वस्थचित्तेन भयवर्जितः || ५१|| साम्यं देवोऽस्ति साम्यं हि तीर्थं परमपावनम् । साम्यमेव परो धर्मः संसाराब्धौ सुतारकः ॥४२॥ ध्यानं तत्किं जपः कोऽसौ योगः कोऽस्ति तपोऽत्र किम् ।
ही धो डाल ||४४ || यह सम्यग्ज्ञानी आत्मा समतारूपी अमृतको पीकर संसाररूपी रोगसे निवृत्त हो जाता है और स्वर्ग सुखको भोगकर वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है || ४५|| हे आत्मन् । यदि तू अपने आत्माको संसारके दुःखोंसे छुड़ाना चाहता है तो अपने ही आत्मामें शुद्ध परिणामोंसे समतारूपी ज्ञानको धारण कर || ४६ ॥ हे आत्मन् ! तू इन इंद्रियोंके विषयोंका त्याग कर त्याग कर । हे बुद्धिमन् ! तू शरीरसे भी स्पृहाका त्याग कर त्याग कर और समतारूपी अमृतको पी ||४७॥ परम आनन्दको प्रगट करनेवाले इस उत्कृष्ट समतारूपी रसको पीनेवाले योगियों को चर अचर यह समस्त संसार उन्मत्तके समान दिखाई पड़ता
|| ४८ ॥ वह मेरा प्रिय है और वह मेरा शत्रु है, यह कल्पना तभीतक रहती है जबतक कि निर्विकल्प - रूप समतारूपी राजा हृदयमें विराजमान नहीं होता ||४९ ॥ द्वेपके कारण तलधारका घात करनेपर तथा हर्षसे पूजा करनेपर जिन मुनिके हृदयमें कभी विकार उत्पन्न नहीं होता, उसीको समता कहते हैं ॥ ५० ॥ भयरहित जो योगी स्वस्थ चित्त होकर इस समतारूपी तीर्थकी आराधना करता है, वह शीघ्र ही इस संसाररूपी समुद्र से तर जाता है ॥५१॥ यह समता ही परम देव है, समता ही परम पवित्र तीर्थ है, समता ही परम धर्म है और समता ही संसाररूपी समुद्रसे पार कर देनेवाली है || ५२ ॥ वह ध्यान ही क्या है ? वह जपही क्या है? वह योग ही क्या है ? और वह तप ही क्या है ? कि जिससे मोक्षकी इच्छा करनेवाले पुरुषको
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